Media Trial of Kshatriyas
1. “ठाकुर का कुआं“: वर्चस्व की हकीकत छिपाता मिडिया
कुख्यात नाज़ी प्रोपगैंडिस्ट जोसेफ गोएबल्स के अनुसार “”यदि आप किसी झूठ को बार-बार दोहराएंगे, तो अंततः लोग उस पर विश्वास करने लगेंगे” और इसी सिद्धांत का प्रयोग देश की मीडिया निरंतर क्षत्रियों के विरुद्ध अलग अलग नरेटिव सेट करने के लिए करती है |
“ठाकुर का कुआं” कविता के प्रचार द्वारा मिडिया क्षत्रियों पर तानाशाही का नैरेटिव चला ध्रुवीकरण करती आई है। विडम्बना देखिये कि 2014 में जिस जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में इस कविता को फेमस किया गया , उस फेस्टिवल की फंडिंग वह पूंजीवादी वर्ग करता है जो आदिवासियों को विस्थापित करने के लिए कुख्यात है । इस लिटरेचर फेस्ट में इस कविता को प्रसिद्द करने वाले स्वर्गीय इरफ़ान खान स्वयं टोंक के नवाबजादे (उनकी अपनी नवाबियत का महिमा मंडान करता हुआ इंटरव्यू भी मौजूद है) थे और इस लिट्रेचर फेस्ट कि होस्ट नमिता गोखले स्वयं पेशवाई पंडित समाज से आती हैं।
इस क्लिप का बार बार प्रसार करते The Brut India के चीफ एडिटर महक कस्बेकर और मैनेजिंग एडिटर प्रशांत झा स्वयं ऐसे वर्ग से हैं जिसका मुग़ल काल से अब तक हर सार्वजनिक संसथान पर एकतरफा दबदबा है। किंतु फिर भी नरेटिव चलाते मानो ठाकुरों ने सब कुछ कब्जाया हुआ है।
2. दुष्प्रचार के ज़रिये मानवीय अधिकारों का दमन : बहमई कांड एक उदाहरण
विख्यात Canadian पत्रकार गिल कोर्टमांश लिखते हैं कि “दुष्प्रचार एक ताकतवर नशा है जो जनता की सोचने समझने की क्षमता को ख़त्म कर देता है”। और दुष्प्रचार का सबसे बड़ा माध्यम है: मीडिया।
मीडिया द्वारा सामंतवाद के लगातार दुष्प्रचार के पीछे लक्ष्य था क्षत्रिय युवाओ को उलझाना और उनका पतन करना। यहां न्याय अन्याय ,सही गलत की बात ही नही है ।यहां सिर्फ जातीय घृणा की बात है जिससे पीढ़ी दर पीढ़ी क्षत्रिय समाज के विरुद्ध नैरेटिव बनाकर क्षत्रियों को मुख्यधारा से अलग करने की साजिश चलती रही
उदाहरण: 1981 में हुए बेहमई नरसंहार का महिमा मंडन इसी मीडिया ट्रायल का सबसे घिनौना उदहारण है जहां Narrative गढ़ा गया कि 22 अत्याचारी ठाकुरों को न्याय हेतु मारा गया।
गाजियाबाद निवासी शंभूनाथ शुक्ला उन ब्राह्मण पत्रकारों के गिरोह का हिस्सा थे , जिन्होंने केवल यूपी के पहले गैर–ब्राह्मण मुख्यमंत्री – वीपी सिंह गहरवार – को हटाने के लिए बेहमई पर दुष्प्रचार शुरू किया। हालाँकि, उनके दुष्प्रचार के मुख्य शिकार बेहमई के पीड़ित रहे, जिन्हें केवल इसलिए बहुजन विमर्श में तिरस्कृत किया गया और न्याय से वंचित रखा गया क्योंकि शुक्ला, सेन और कपूर द्वारा स्थापित प्रचार अनुसार बहमई में मृतक 22 अत्याचारी ठाकुर (यहां, क्षत्रिय) थे ।
इस दुष्प्रचार का प्रभाव समझिए कि निर्दोष की हत्या कर भी फूलन हीरोइन हो गई और जो मारे गए उनमें जो तीन बहुजन वर्ग (1 एससी, 1 ओबीसी और 1 मुस्लिम) के थे उनकी पहचान छुपा ली गई। शेष 17 निर्दोष मृतक भी एक विशेष वर्ग दादी ठाकुर या मैना ठाकुर समाज से थे, जिन्हें हिंदू मेव भी कहा जा सकता है।
फूलन के बहाने इन 20 निर्दोष लोगों को दोषी प्रचारित कर उनकी हत्या को जायज ठहरा दिया गया, केवल इसलिए क्योंकि पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल के नेतृत्व में समकालीन हिंदी मीडिया और माला सेन शेखर कपूर की सवर्ण लॉबी ने इन्हें “ठाकुर” प्रचारित किया।
फूलन को हीरोइन ही इस लिए बनाया गया ताकि कथित तौर पर क्षत्रियों की हत्या का जश्न मनाया जा सके और उसके बहाने आपको घेरा जा सके ।कुसमा नाइन ने जो फूलन द्वारा किए गए बेहमई हत्याकांड के प्रतिशोध में मल्लाह समाज के व्यक्तियों को मारा, उसे भी विमर्श से गायब कर दिया गया।
3. चरित्र हनन और दोहरे मापदंड
इस मीडिया ट्रायल पर थोड़ा प्रकाश डालते हैं:
कुछ वर्ष पूर्व जाट नेता सत्यपाल मलिक मेघालय के गवर्नर रहते हुए अंतरराष्ट्रीय जाट सम्मेलन को संबोधित करते हुए गर्व करते हैं कि उनके जातिबंधुओं ने इंदिरा गांधी की हत्या की। 2023 में उन्होंने एक इंटरव्यू में अपनी जाति का डर दिखाते हुए कहा खून खराबे कि धमकी भी दी। इसके बाद भी ना लिबरल और ना दक्षिणपंथी मिडिया ने इसपर आपत्ति जताई।
वहीं दूसरी ओर, जब मनीष सिसोदिया स्वयं को अपने गुहिलोत वंश से जोड़ते हैं, तो ना केवल दक्षिणपंथी बल्कि उन्हीं के लिबरल बंधु उन्हें, उनके वंश को और राजपूत समाज को भिन्न भिन्न टिप्पणियों से अटैक करते हैं।
जब वर्षों से जाट खिलाड़ी, राजनेता, अभिनेता 13 अप्रैल को अंतर्राष्ट्रीय जाट दिवस मनाते आय हैं, तब मीडिया इसका चुप चाप समर्थन करती है।वहीं रविंद्र जडेजा द्वारा खुदको केवल राजपूत बॉय बोल पोस्ट करने मात्र से जडेजा और क्षत्रिय समाज का मीडिया ट्रायल हो जाता है।
इसी तरह जब मूल ओबीसी के अधिकारों और ओबीसी वर्गीकरण की बात करने वाले रिटायर्ड फौजी कर्नल केसरी सिंघजी राठौड़ का RPSC में चयन हुआ, तब जाट महासभा के इशारे पर आज तक से लेकर पंडित ओम थानवी तक ने उनका चरित्र हनन (कैरेक्टर अस्ससिनेशन) किया। यही नहीं अपितु कर्नल केसरी सिंघजी राठौड़ के चरित्रहनन के साथ साथ इंडियन एक्सप्रेस ने १९८२ में ऑस्ट्रेलियन महिला के साथ दुष्कर्म के आरोपी घोर जातिवादी शराब ठेकेदार राजाराम मील को सामजिक न्याय का सिपाही प्रचारित किया , तो वहीँ राजस्थान तक (आज तक राजस्थान) के शरद कुमार ने जुबान ज़हरीली केसरी नामक प्रोग्राम में निर्मल चौधरी जैसे व्यक्तित्व को प्रमोट किया।
4. इतिहास विकृतिकरण
यह मीडिया ट्रायल केवल जातिय विद्वेष फैलाने तक सीमित नहीं है, बल्कि इतिहास विकृतिकरण भी इसका अभिन्न अंग है।
2015 में the scroll media ने मराठी ब्राह्मण गिरीश शहाणे के लेख को प्रकाशित किया जहां पूरे राजपूत समाज के सैन्य इतिहास को defeat specialist बोलकर खारिज तो किया ही गया बल्कि राजपूत महापुरुषों पर अपमानजनक टिप्पणियां भी की गईं।
इसी तरह स्क्रॉल ने रुचिका शर्मा का लेख भी प्रकाशित किया जहां वह लिखती हैं कि राजपूत इतिहास शौर्य और बहादुरी का नहीं बल्कि, राजपूत पुरुषों द्वारा राजपूत स्त्रियों के बलात्कार का है।
तो वहीं 2018 में BBC हिंदी ने जाट प्रोफेसर हरबंस मुखिया के लेख को प्रकाशित किया जहां मुखिया ना केवल गिरीश शहाणे के नैरेटिव को पुनः दोहराते हैं बल्कि यह भी प्रचार करते हैं कि राजपूतों ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ा ही नहीं । जबकि 1857 के समकालीन कर्नल जोर्ज मेलेसन कुछ और ही लिखते हैं।
बीबीसी द्वारा छपे इसी लेख के अनुसार राजपूतों का भारतीय इतिहास एवं आधुनिक भारत में कोई योगदान नहीं। जबकि भूदान में लाखों एकड़ ज़मीनों और राजा महाराजाओं द्वारा बनाए कोर्ट, कचहरी, अस्पताल के अलावा स्पोर्ट्स, आर्मी, शिक्षा, और राजनीति सभी में क्षत्रियों ने अपना योगदान दिया है।
जहां एक तरफ Scroll BBC जैसे बड़े मीडिया प्लेटफार्म क्षत्रिय समाज को stereotype करने के साथ साथ उनके सैन्य सांस्कृतिक योगदान को पूरी तरह नकारती है तो वहीं ये मघ्यकालीन राजपूत शासकों जैसे मिहिरभोज प्रतिहार और पृथ्वीराज चौहान की राजपूत आइडेंटिटी को ही नकार स्टोरी पब्लिश करती हैं। बावजूद इसके कि मिहिरभोज प्रतिहार के वंशज अरुणोदय परिहार का सरकार को पत्र सार्वजनिक है।
क्या तुर्कों और मुगलों के आने के पूर्व राजपूतों का नहीं, बल्कि गूजरों और जाटों का राज था?
इसी तरह प्रश्न उठता है कि यदि राजपूत समाज के सबसे बड़े वंश प्रतिहार, परमार, चौहान, तोमर, भाटी , चंदेल, राठौड़ ही राजपूत नहीं हैं तो फिर राजपूत कौन हैं?
इसी तरह इंडियन एक्सप्रेस, The Quint और The Print को राणा पूंजा भील लिखकर नरेटिव सेट करते हैं जबकि इंडिया टुडे पर राणा पूंजा सोलंकी के परिवार द्वारा तथ्यों के साथ ओपन लेटर मौजूद है।
तो वहीं, DNA पर अनीश गोखले जनरल ज़ोरावर सिंह कहलुरिया के वंशज दीक्षा और रिया कहलुरिय के वीरोध के बावजूद उन्हें सिख जाट बोलते हुए लेख प्रकाशित कर देता है।
2020 में The Wire पर रामप्रसाद बिस्मिल को बिना प्रमाण के ब्राह्मण लिखकर एक लेख छपा जबकि 2013 और 2018 में The Hindu द्वारा मुरैना के बरवई गांव में बसे बिस्मिल के तोमर राजपूत परिवार का इंटरव्यू पहले से मौजूद है।
अर्थात जो मीडिया हाउसेस, क्षत्रियों के विरुद्ध हेय भावना और विद्वेष फैलाती हैं, वही क्षत्रिय महापुरुषों की जाति भी बदलते हैं और वो भी उनके जीवित वंशजों द्वारा तथ्यात्मक खंडन के बाद भी।
जैसे The Print का दिलीप मंडल एक तरफ महावीर चक्र recipient ब्रिगेडियर सवाई भवानी सिंहजी और उनके कुशवाह राजवंश को गद्दार बोलता है तो वहीं बार बार काछी समाज को कुशवाह प्रचारित करता है।
जहां मंडल क्षत्रियों पर झूठा आरोप लगाता है कि उन्होंने जाट गूजर अहीर को लड़ने से वंचित किया, तो वहीं मंडल प्रतिहार, यदुवंश इत्यादि राजपूत वंशों पर जाट गूजर के झूठे दावों का समर्थन भी करता है।
और तो और कुछ ही पीढ़ी पूर्व हुए मेजर ध्यानचंद को काछी प्रचारित करता है , वो भी ध्यानचंद के परिवार और ध्यानचंद स्वयं की आत्मकथा के बाद भी।
5. मिडिया द्वारा ठाकुरवाद का प्रपंच
इन सबमें मंडल को समर्थन मिलता है The Print के संस्थापक और Editor Guild of India के शेखर गुप्ता का।
2018 से ही शेखर गुप्ता और The Print क्षत्रिय समाज के विरुद्ध जातिय ध्रुवीकरण के लिए ठाकुरवाद का नेरेटिव चलाते आय हैं, जबकि भारतीय व्यवस्था में जहां संसाधनों और संस्थाओं में 70 साल से निर्विवादित ब्राह्मण बनिया वर्चस्व है तो वहीं मीडिया जाट अहीर गुजर की महत्वकांक्षाओं के अनुसार नैरेटिव चलाती है।
ठाकुरवाद का मिथक भारत समाचार के ब्रजेश मिश्र, प्रज्ञा मिश्र, चित्रा त्रिपाठी, अंजना ओम कश्यप, स्वाति चतुर्वेदी, संजय शर्मा और रजत शर्मा के वर्ग ने देश में स्थापित ब्राह्मणवाद से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए शुरू किया था।
जो मीडिया मिहिरभोज प्रतिहार, अनंगपाल तोमर और पृथ्वीराज चौहान की राजपूत पहचान पर ही सवाल करती है, वह ठाकुरवाद के मिथक को फैलाने के लिए किसी भी रैंडम “सिंह” नामधारी अपराधी, एसडीएम, अधिकारियों को ठाकुर बता लिस्ट जारी करती है। जैसे दैनिक भास्कर जो बोत्रे, चहल, टाडा तक को ठाकुर बना देता है।
6.मीडिया द्वारा सामाजिक हाशियाकरण और राजनीतिक हिंसा
फिर यही मीडिया सरकारी पॉलिसियों में क्षत्रियों की हिस्सेदारी खत्म करने के लिए ठाकुरवाद के साथ साथ क्षत्रियों की आबादी आंकड़े कम करके बताती है।
किंतु यही मीडिया ब्राह्मणों और जाटों की आबादी बढ़ा चढ़ा कर बताती है, पूरे क्षेत्र को जाटलैंड गूजरलैंड घोषित करती है, इन dominant जातियों के लिए victimhood का पब्लिक परसेपशन गढ़ती है, उनके लिए विप्र बोर्ड, तेजा बोर्ड बनवाने के लिए माहौल बनाती हैं।
जो मीडिया यह माहौल बनाती है मानो देश में दलित उत्पीड़न की जड़ क्षत्रिय हैं, वह शोषक का ब्राह्मण, जाट, गूजर, अहीर होते ही अपराधी का नाम तक छिपाती है।
किंतु याद रहे इस हो रहे मिडिया ट्रायल का अंतिम उद्देश्य है राजनैतिक हिंसा और सामाजिक अन्याय।
जहां मिडिया अपराधियों की राजपूत जाति देखकर पुरे क्षत्रिय समाज को टारगेट करती है, तो वहीँ पीड़ितों की क्षत्रिय पहचान देखकर चुप भी रहती है।
जैसे अंकिता भंडारी और वेदिका ठाकुर हत्याकांड, बलवंत सिंह सेंगर हत्याकांड, अम्ब सिंह हत्याकांड जिन पर मीडिया मूक दर्शक बनती है। ।1981 में हुए बेहमई नरसंहार से लेकर 2021 में हुए मधुबनी नरसंहार का यही मीडिया महिमा मंडन भी करती है।
किंतु गलती किसकी है ? गलती है आपकी और आपके नेताओं की जो अब तक मीडिया की अहमियत को नहीं समझे। ।