क्षत्रियों का संकीर्ण दृष्टिकोण (Parochial Outlook of Kshatriyas)
एक जाति के रूप में राजपूत संभवतः इस देश में यूनिक है। वैसे तो जातिय दंभ इस उपमहाद्वीप की लगभग हर प्रभावशाली जातियों में देखने को मिल जाता है लेकिन राजपूतों में ये एक्स्ट्रा फ्लेवर के साथ एक्सप्रेस होता है। चूंकि क्षत्रियों में हजारों सालों का लगातार मार्शल ट्रेडिशन रहा है इसलिए लाजमी है की इस कौम में amour propre की मजबूत भावना रहेगी।
मैं हमेशा कहता आया हूं की क्षत्रियों का इतिहास ही भारतवर्ष का इतिहास है। क्षत्रियों के बगैर इस इंडियन सबकॉन्टिनेंटल लैंडमास के इतिहास की कल्पना करना मानो असंभव सा है। चाहे फिलोसॉफिकल ट्रेडिशंस हो या आर्किटेक्चरल स्टाइल्स का इवोल्यूशन या फिर चित्रकला का विकास, इन सबमें क्षत्रियों का सीधा रोल रहा है। ज़ाहिर है इन सब पर गर्व करना बनता है।
But the question arises, गर्व कब तक और किस लिमिट तक किया जाए? एक guesstimate के हिसाब से हम 18वी सदी से राजपूतों का पतन मान कर चलते है। हमे कारणों में जाने की जरूरत नहीं है लेकिन यह सर्वविदित है की इसके बाद as a whole क्षत्रियों का ruination speed up हो गया। 300 से ज्यादा वर्षों से हमारा debasement जारी है और हालिया दशकों में इसने और रफ्तार पकड़ ली है।
इतने लंबे समय का फेलियर निश्चित रूप से कई सवाल उठाता है। लेकिन अमूमन यह देखा गया है की उन सवालों पर गहन विचार विमर्श करने बजाय 1947 के बाद राजपूत समाज धीरे धीरे अपने आउटलुक में और अधिक insular होता चला जा रहा है। जैसे खतरा महसूस होने पर कछुआ अपनी खाल में चला जाता है ठीक वैसे ही राजपुत समाज शुतुरमुर्ग की भांति अपना सर रेत में देकर संतुष्ट होकर बैठ गया है की भाई सब बढ़िया है।
इसी प्रक्रिया में नया ट्रेंड चला है अपने आपको सर्वश्रेष्ठ मानने का। Sub 72 IQ वाले सामाजिक लीडर आपको इस समाज की श्रेष्ठता में दंभ भरते दिख जायेंगे। उनके अनुसार क्षत्रियों से उत्कृष्ट और कुछ नहीं। वेस्टर्न मैटेरियल प्रोग्रेस का ये उपहास बनायेंगे ये कहकर की हमारे पास जो है वो इनके पास नहीं। अब भगवान जाने इनके पास ऐसी कौन सी दिव्य मणि है पर खैर।
इनके अनुसार इन्ही के राजा महाराजा, इन्ही की संस्कृति, इन्ही का इतिहास और इन्ही के कस्टम ही सबसे उत्तम है।
पश्चिम द्वारा किए गए विकास को ये लोग यह कहकर नकार देंगे की इनके यहां तो परिवार ही टूट चुके है जैसे मानो राजपूतों के परिवार सूरज बडजात्या की फिल्मों के परिवारों की तरह एकदम आदर्श स्थिति में हो।
जहां हमे जरूरत है की public discourse शिक्षा और तकनीकी में नए डेवलपमेंट्स पर हो, Sartre, Wittgenstein, Kant, Spinoza आदि को पढ़ा जाए, नेपोलियन और बिस्मार्क के योगदान का एनालिसिस किया जाए, entrepreneurial revolution पर बात की जाए, Big data analytics और AI के impact पर चर्चाएं हो वहां हम दहेज, गहना और दारू मांस पर बार बार प्रवचन देकर खुश हो जाते है।
आज का राजपूत racial purity पर गर्व करता है। अच्छी बात है करना भी चाहिए लेकिन क्या समाज Theory of Evolution और Out of Africa पर बात करने को तैयार है। क्या राजपूतों का बूमर वर्ग यह स्वीकार करेगा की रामायण महाभारत से बाहर भी एक दुनिया है और हमारे अधिकतर ग्रंथ पंडावाद की मिलावट के शिकार है। आज जब हमे अंधविश्वास पूरी तरह से त्याग देना चाहिए था तब सबसे ज्यादा हमारी महिलाएं पाखंडी कथावाचकों द्वारा प्रायोजित इंडॉक्ट्रिनेशन कैम्पस में ब्रेनवाश होती मिलेगी।
हालिया कुछ दिनो पहले ठाकुरों ने चटकारे लगा लगा कर नालंदा विश्वविद्यालय पर चर्चा की उतनी आज से पहले कभी सामाजिक रूप से ivy league या oxbridge में समाज के प्रतिनिधित्व पर क्यों नही की गई। इतने ही सर्वश्रेष्ठ हो तो कहां है आपका intellectual वर्ग। पिछले सौ सालों में एक आयुवान सिंह को छोड़कर एक भी ढंग का बुद्धिजीवी पैदा नही कर पाया and yet the gall on you people to look down upon others? Man the ironic hilarity of this entire thing is too much for me.
अपने आपको दुनिया का सबसे श्रेष्ठ कल्चर मानने वाले इस समाज ने अपनी कलेक्टिव मेमोरी से यह क्यों भुला दिया की इस देश के establishment ने अपनी शक्तियों का blatantly misuse करते हुए और संविधान द्वारा प्रदत्त किए गए fundamental rights को दरकिनार कर इस समाज के असहाय वर्ग से जबरन उनकी जमीनें छीन ली। ऐसा नहीं है दुनिया मे बाकी किसी जगह ऐसा नहीं हुआ। लेकिन बाकी समुदायों ने दशकों तक अपने हक की लड़ाई लड़ी और अभी तक लड़ रहे है। हमने तो भूस्वामी आंदोलन के बाद इस तरह आंखे मींची मानो हमारा राज फिर से आ गया हो।
ये किस तरह की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति है भाई? ये तो एक rot है जो अंदर तक घुस चुकी है और putrefaction जोरो पर है। राम कृष्ण के वंशजों किस मुंह से अपने आपको उनका scion कहलाने का दावा करते हो। तनिक विचार करो।