मनुवादी सोच और श्रमण परंपरा: क्षत्रियों की ऐतिहासिक विरासत का विमर्श
राजर्ष सिंह वैस हिन्दुओं के मनुवादी और संस्कृतवादी खेमे का मानना है की क्षत्रिय हमेशा से वेद, पुराण और अन्य…
पौराणिकता के मायाजाल में उलझे महाराणा प्रताप
निर्मित धारणाओं और छवि चमकाने वाली पीआर फैक्ट्रियों के समय में, यह आम बात है कि इंसानों को ‘अतिमानव’ बना दिया जाता है और सत्य की जगह पोस्ट ट्रुथ ले लेता है। इतिहास का तोड़ा-मरोड़ा जाना, अतिशयोक्ति या दुष्प्रचार करना इस वैश्विक प्रवृत्ति में कोई नई बात नहीं है। इतिहास में पहले भी हल्के बदलाव के साथ प्राच्यवादी नज़र (ओरिएंटलिस्ट गेज़) ने इस तरकीब का इस्तेमाल उस लेंस को बदलने के लिए किया था, जिससे दुनिया पूर्व को देखती थी। इसी तर्ज़ पर शीत युद्ध के दौर में सिनेमा ने कुछ समुदायों को बदनाम करने या विशिष्ट विचारधाराओं को आगे बढ़ाने के लिए एक प्रचार उपकरण के रूप में काम किया। ऐसे ही अफ्रीकी और एशियाई इतिहास, साहित्य और संस्कृति के ‘आंग्लीकरण’ ने एशियाई और अफ्रीकी मूल के लोगों के लिए उनकी अपनी पहचान को ही पराया बना दिया गया। मध्यकालीन मेवाड़ के शासक, महाराणा प्रताप का मामला भी कुछ ऐसा ही है, जिनकी छवि को कविताई अति–प्रशंसा और षडयंत्रकारी ह्रासन के विपरीत ध्रुवों के बीच उलझा दिया गया है। महाराणा को नैतिक ईमानदारी, साहस और दृढ़ता के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है, लेकिन समय के साथ, महाराणा की इस मरणोपरांत लोकप्रियता को राजनीतिक विचारकों ने अपने–अपने ढांचे में ढालने के लिए इस्तेमाल किया है। एक तरफ जहाँ दक्षिणपंथी, महाराणा को एक कट्टर धार्मिक शुद्धतावादी के रूप में पेश करने की कोशिश करते हैं, जो मान सिंह को धोखा देने और अपनी बेटियों की शादी एक ‘तुर्क’ से करने के लिए उनके साथ भोजन भी नहीं करते थे; दूसरी ओर, प्रगतिशील वामपंथी और उदारवादी लॉबी उनसे जुड़ी किंवदंतियों का उपहास उड़ाकर महाराणा के कद को रद्द करने का काम करते हैं। इन दोनों विचारधाराओं की अतिवादी प्रतिक्रियाएँ महाराणा के जीवन और वृत्तांत के साथ घोर अन्याय करती हैं। चारण रचित छंदों और मौखिक इतिहास को रद्द करने की प्रवृत्ति “हल्द्घाट रण दितिथिया, इक साथे त्रेया भान! रण उदय रवि अस्तगा, मध्य तप्त मकवान्!!’ (यह एक असाधारण संयोग था कि हल्दीघाट के युद्धक्षेत्र (18 जून 1576) में एक ही समय में तीन सूर्य चमके। पहले थे शानदार चमकते सितारे और शाही वंशज महाराणा प्रताप। सुबह का दूसरा उगता हुआ तारा था चमकता सूर्य, जो प्रतिदिन आकाश में चलता हुआ पश्चिमी पहाड़ों की ओर बढ़ता है और शाम के समय अस्त हो जाता है। तीसरा सूर्य था झालामान, जो दोपहर के चिलचिलाते सूरज की तरह वीर योद्धा महाराणा प्रताप के पक्ष में खड़े होने के लिए युद्ध में आगे बढ़ता जाता था।) ऐसी रचनाओं को मनगढ़ंत वृत्तांत और प्रायोजित शाही स्वप्रचार कहकर कमतर आंकने की जड़ें दरअसल हिंदी साहित्य को भक्तिकाल और रीतिकाल के दो कालों (शाखाओं) में विभाजित करने में निहित हैं; जिससे भक्ति का श्रेय लोक को दिया गया और रीतिकाल को सामंती व्यवस्था से जोड़ा गया। सामंती व्यवस्था से जुड़ने के बाद रीतिकाल का साहित्य ‘निम्न स्तर’ का माना जाने लगा। रामविलास शर्मा ने रीति काव्य को सामंती या दरबारी काव्य भी कहा, जिससे राजपूताना शासकों के मौखिक रूप से संरक्षित शाही खातों को सम्मानजनक मान्यता नहीं मिल पाई। इसी के चलते प्रगतिशील वामपंथी उदारवादी विचारकों में मौखिक इतिहास और चारण रचित छंदों की परंपरा के प्रति तिरस्कार का भाव पनपा और राजपूती काव्यात्मक रचना और लोककथाओं की ऐतिहासिकता के अकादमिक खंडन का आधार तैयार हुआ। इसलिए, प्रगतिशील लॉबी द्वारा महाराणा की वीरता और उनके बलिदान की काव्यात्मक गाथा के संदर्भों को आज भी संदेह की दृष्टि से देखा जाता है और उनकी प्रामाणिकता पर बार बार सवाल उठाया जाता है। चारणों (चारणों का एक वर्ग जो युद्ध के मैदान में योद्धाओं के साथ जाते थे) द्वारा लोककथाओं में अतिशयोक्ति के तत्व से राजपूत सेनाओं में उनके मार्शल कारनामों की प्रशंसा करके सैनिकों को प्रेरित करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरण के रूप में देखा जा सकता है। शासक राजाओं के चरित्र की स्पष्ट रूप से प्रशंसा की जाती थी और उन्हें उद्धारक और देवताओं के बराबर बताया जाता था, इसलिए लोककथाओं के बोल पौराणिक छवि को आदर्श बनाने के लिए उपयोग किए जाते थे, जो कार्लाइल के शब्दों में, लगभग ‘नायक-पूजा’ करने जैसा था। साहित्यिक अलंकरण के बावजूद, ये छंद उस प्रसिद्ध योद्धा के प्रति कवियों की गहरी ऋणग्रस्तता, चेतना और समर्पण का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्होंने अपने देशवासियों, क्षेत्र और अपनी मातृभूमि के सम्मान के लिए अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ अपना जीवन तक दांव पर लगा दिया था।1 इसलिए, छंदों, लोककाव्यों और लोककथाओं को ‘बड़ाई के औचित्य‘ के आधार पर स्पष्ट रूप से नहीं आंका जा सकता। मिथक…
सतिप्रथा का ठीकरा और ठाकुर का सिर
सती प्रथा का ज़िक्र हालही में सोशल मीडिया में फिर सुर्खियों में तब आया जब 2023 में अहमदाबाद की 28…
Colonel Tod and the Rajput History : Undoing The Damage Done
Anyone familiar with the history of Rajputs and Rajasthan would be equally familiar with the British courtly chronicler Colonel James…
क्षत्रियों का ब्रिटिश विरोधी विद्रोह और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान : दुष्प्रचार को तोड़ते तथ्य
“दुनिया से गुलामी का मैं नाम मिटा दूंगा।एक बार ज़माने को आज़ाद बना दूंगा। बन्दे हैं ख़ुदा के सब, हम…
Maharana Pratap & The Phenomena of Legenditis
In the times of manufactured perceptions and image gloss-over PR factories, it is rather commonplace to find humans being inflated…
Ode to Kacchapghata Chief Raja Man Singhji
जननी जनै तो एहड़ा जन, जेहड़ा मान मरद्। संदर खाण्डो पखारियाँ, काबुल पादि हद्द।। The Afghans/Pashtuns have been a tremendously…
The Mauryas of the medieval period: A rough sketch
Written by Vikrant Parmar The existence of the Medieval Mauryas is supported by abundant evidence, but there is insufficient data…
The "Vivid" Themes of Kshatriya History
Penned by Awdhesh Shekhawat Dhamora These days, willful distortion of history and nitpicking on historical Kshatriya figures, is an ongoing…
Queen Padmavati: The Classic Case of Academic Gaslighting
Activist Edward Snowden once quoted, “The whole system revolves around the idea that the majority can be made to believe anything,…
Rana Sanga vs Babur: 5 reasons why Mughals didn’t need any invitation to invade India
We all know that the Mughal dynasty was founded by Zahir-ud-din Muhammad Babur in 1526 which would go on to…
Dr. Hari Singh Gour: The forgotten champion of Legal Rights Movement
The Parinirvan Diwas of Baba Saheb Ambedkar is also a fine day to remember his contemporary, 𝗗𝗿. 𝗛𝗮𝗿𝗶 𝗦𝗶𝗻𝗴𝗵 𝗚𝗼𝘂𝗿,…
Remembering Shaheed Ram Prasad ‘Bismil’ Tomar
Ninety-five years ago, the colonial British government executed Ram Prasad ‘Bismil’, Thakur Roshan Singh, and Ashfaqullah Khan for their anti-colonial…
Naikidevi Chandel: The battle of Kayara and the sociomilitary history of Godwad
Kyara or Kasahrda is a dusty unremarkable village near Mount Abu, a prominent hill station and ancient seat of Abu-Chandravati…
Rani Durgavati: The symbol of syncretic culture between Rajputs and Tribals
Most of us may have heard of Rani Durgavati, the fearless queen of the Gondwana, who wreaked havoc against the…
Gurjara - The Regional Identity of the people of Gurjaradesa
Meaning of word गुर्जर: (Gurjara) : in the well-known and critically acclaimed work of VS Apte “The practical Sanskrit-English dictionary”,…
History Writing: A Political Process & Dearth of Rajput Historians a crisis
Chausath Yogini Temple that was established by Raja Devpala Kachwaha of Gwalior in 11th century. It is said to have inspired the design of the…
Busting narratives: Why Shivaji Rajput dichotomy is false
Recently, Professor Suraj Yengde, Assistant Professor at Department of African and American African Studies at Harvard, tweeted that “if king shivaji…