ओमप्रकाश वाल्मीकि का रचनासंसार और ‘ठाकुर’ का रूपक


अक्सर popular discourse में और दलित विमर्श के संदर्भ में बौद्धिकों और प्रगतिशील समाज द्वारा ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की मार्मिक कविता ‘ठाकुर का कुआं‘ पढ़ी-पढ़ाई और सुनाई जाती है। इस कविता के माध्यम से सामंतवाद के निरंकुश आधिपत्य को उकेरा जाता है।

लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के विराट और वृहत्त रचनाकर्म में से चुनकर ‘ठाकुर का कुआं’ ही बार-बार उद्धृत किया जाना एक सवालिया निशान उठाता है। शैम्पेन सोशलिस्टों और पक्षपाती प्रगतिशीलोंं द्वारा सामंतशाही का ठीकरा एकमुश्तठाकुरके सिर फोड़ देना एक पुरानी रिवायत बन गया है, जिसके द्वारा राजपूतों को common enemy दर्शाकर ‘(ठाकुर)शोषक बनाम (दलित)शोषितकी चलताऊ बाइनरी खड़ी की जाती है।

यह पूरा प्रकरण खेदनीय इसीलिए है क्योंकि भारत में सामंत सिर्फ़ ठाकुर या राजपूत नहीं रहे; जाट, जट्ट सिख, गुज्जर, त्यागी, पठान, कुरैशी, भूमिहार, ब्राह्मण, कायस्थ, मीणा जैसे सामाजिक गुट भी अलग अलग परिवेश और अलग अलग समय पर जमींदार और जागीरदार रहे। ऐसे में सामंतवाद का परिचायक सिर्फ एक ठाकुर को बना देना, वह भी एक चयनित कविता के पाठ-पुनर्पाठ द्वारा, महज़ एक संयोग न होकर एक सोचा समझा अकादमिक षड्यंत्र है, जिसका स्पष्ट उद्देश्य है ठाकुर को सामंती शोषक का रूपक बनाकर पेश करना।

गौर तलब यह है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि के रचनासंसार में जिन जिन विषयों, निजी अनुभवों, जाति समूहों और विमर्शों का उल्लेख है, वह किसी वजह से मुख्यधारा से परे ही रखे जाते हैं। ज़ाहिर है, यह इसीलिए भी हो सकता है क्योंकि साहित्य जगत और अकादमिक जगत में जिन जाति समूहों का वर्चस्व है, वे नहीं चाहते कि दलित चेतना की धुरी ठाकुर नामक शोषक से इतर किसी और समूह की ओर घूमे। लेकिन ईमानदारी से ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की कृतियों का पुनर्वलोकन करें तो हम पाते हैं कि उनके रचनाकर्म में शोषक के चेहरे और (उप)नाम गैर-ठाकुर ही ज़्यादा हैं, जिन्हें लोकप्रिय माध्यमों द्वारा कम उठाया जाता है।

ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की आत्मकथा ‘जूठन‘ उनके पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्थित पैतृक गांव पर आधारित है, जो एक त्यागी (या तगा) बहुल गांव है। जूठन में वाल्मीकि जी का बतौर दलित या अछूत तजुर्बा दर्ज है और त्यागियों द्वारा उनके और उनके परिवार के साथ किए गए भेदभाव और दुर्व्यवहार का संवेदनशील ब्यौरा इसमें मिलता है।

इसी तरह उनकी कहानी ’सलाम’ में ब्राह्मणों द्वारा स्थापित सदियों पुरानी परंपरा ’सलाम प्रथा’ का विरोध करते दलित किरदार का विवरण है।

वाल्मीकि जी की एक अन्य कहानी ‘गोहत्या’ में भारतीय गाँवों में ठाकुर-ब्राह्मण गठजोड़ द्वारा दलित अस्मिता को कुचलने की साज़िश का यथार्थ व हृदय विदारक वर्णन किया गया है। ‘गोहत्या’ में बदले की भावना के चलते पण्डित रामसरण द्वारा दलित युवक सुक्का को गोकशी के नाम पर फंसाना दिखाया गया है।

ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कहानी ‘ब्रह्मास्त्र’ में पंडित माधव प्रसाद भट्ट नाम के पुरोहित किरदार के बहाने उस जातीय श्रेष्टताबोध को पकड़ने की कोशिश की है, जो समाजिक बदलाव में बाधक है।

वाल्मीकि जी की कहानी ‘पच्चीस चेका डेढ सौ‘ में उन्होंने गांव के सामंत चौधरी को दलितों का आर्थिक शोषण करते हुए चित्रित किया है।

अपनी कहानी ‘रिहाई‘ में वाल्मीकि जी ने बंधुआ मजदूरों पर एक लाला सुखलाल द्वारा लिए जाने वाले शोषण का विवरण दिया है।

इनकी कहानी ‘प्रमोशन‘ में मार्क्सवादियों का दलितों के प्रति दोयम दर्जे का रवय्या उजागर हुआ है।

सपना‘ कहानी में एक शिरोडकर (किरदार) विद्यालय की बजाए मंदिर बनवाने का प्रस्ताव रखता है। दलित युवक गौतम और उसके परिवार को नटराजन नामक पात्र द्वारा इसी मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में आगे बैठने नहीं दिया जाता।

घुसपैठिये’ कहानी उच्च-शिक्षण संस्थाओं में दलित छात्रों के प्रति होने वाले भेदभाव को सच के साथ प्रस्तुत करती है जहां एक सुभाष सोनकर की एक प्रवण मिश्रा द्वारा रैगिंग के नाम पर जमकर पिटाई की जाती है। मेडिकल कालेज में बैठे भगवती उपाध्याय जैसे डीन का उल्लेख है जो दलित छात्रों का शोषण रोकने के बजाय उसे बढ़ावा देते और जायज ठहराते नजर आयेंगे।

ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कहानियों के माध्यम से केवल सवर्णों के बीच ही नहीं बल्कि दलित समाज में भी फैले अंतर्विरोधों को दिखाना नहीं भूले और वाल्मिकी जी की कहानी ‘शवयात्रा‘ इसी अंतर्विरोध का उदाहरण है।

‘शवयात्रा’ की कहानी कोई मनगढ़ंत नहीं है। ‘दलितों में भी दलित’ का होना, यह अंतर्विरोध दलित समाज का यथार्थ है, जिसे वाल्मीकि जी ने अपनी कहानी के माध्यम से उभारा है।

भय‘ कहानी के माध्यम से वाल्मिकी जी दलितों की जाति छुपाने की प्रवृत्ति और दलित समाज में व्याप्त कुरीतियों और ब्राह्मणवाद की जकड़ में फंसे दलितों का विवरण है। कहानी के मुख्य पात्र को भय है कि कहीं उसके पड़ोसी ब्राह्मण को उसकी जाति न पता लग जाए और वो de-cast होने के बाद अब de-class ना कर दिया जाए।

मैं ब्राह्मण नहीं हूं’, ‘अंधड़औरदिनेशपाल जाटव उर्फ दिग्दर्शन जैसी कहानियां भी दलितों में अंतर्निहित हीन-भावना के चलते उनका सवर्ण पहचान की केंचुल ओढ़ लेना दर्शाती हैं। ‘बिरम की बहु’ कहानी दलित पुरुषों के अंतस में विद्यमान ’ब्राह्मणवाद’ एवं सामंतवाद को रेखांकित करती है।

मेरे पुरखे कविता में ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं:

तुमने कहा— 

ब्रह्मा के पाँव से जन्मे शूद्र 

और सिर से ब्राह्मण 

उन्होंने पलट कर नहीं पूछा— 

ब्रह्मा कहाँ से जन्मा?”

वह दिन कब आएगा‘ कविता में ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं:

मेरी माँ ने जने सब अछूत ही अछूत 

तुम्हारी माँ ने सब बामन ही बामन। 

कितने ताज्जुब की बात है 

जबकि प्रजननक्रिया एक ही जैसी है।

 लेकिन कितना दुर्भाग्य है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की इन तमाम रचनाओं को छोड़कर साहित्य और मीडिया के मठाधीशों ने अपनी सुविधा और स्वाद अनुसार हड़पकर सिर्फ एक ही कविता (ठाकुर का कुआं) दोहराई है, जिससे सिर्फ दलितचेतना दिग्भ्रमित हो बल्कि समाज में (सिर्फ़) ठाकुर की परिभाषा एक सामंतवादी लठैत शोषक की बनी रहे। वाल्मीकि जी के संपूर्ण रचनासंसार में भटकते हुए असहज करने वाले ऐसे कई किरदार और कई समूह मिलते हैं, जिनका ज़िक्र लोकप्रिय ‘शोषक बनाम शोषित नैरेटिव’ में साफ़ तौर पर आने ही नहीं दिया जाता। ऐसा करना ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के दलित विमर्श के साथ अन्याय करना तो है ही, साथ ही सामंतवाद के बहुआयामी चरित्र को परदादारी में बचाए रखना भी है। एक ख़ास सामाजिक समूह (ठाकुर) में खलनायक ढूंढना आसान तो है पर यह जातीय शोषण पर हवाई चोट करने जैसा है क्योंकि जातीय भेदभाव का नासूर तो कहीं और भी पक रहा है, जहां बौद्धिकों ने शिनाख्त कर शिफा करना कभी मुनासिब नहीं समझा।

अकादमिक जगत, बौद्धिकलोक और मीडिया के इस पक्षपाती रवैय्ये पर अर्जुन सिंह चाँद की पंक्तियां एकदम सटीक बैठती हैं:

लश्कर भी तुम्हारा है, सरदार तुम्हारा है।

तुम झुठ को सच लिख दो, अखबार तुम्हारा है

इस दौर के फरियादी जायें तो कहा जायें ?

कानून तुम्हारा है, दरबार तुम्हारा है! “

 


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