राजपूत और सिख संबंध : साफ़ नज़र और साफ़ नीयत से पुनर्वलोकन


आज गुरु गोबिंद सिंहजी के जन्म दिहाड़े पर उन्हें श्रद्धापूर्वक याद करते हुए साल की आखिरी पोस्ट लिख रही हूं राजपूतों और खालसा पंथ के गहरे संबंधों पर। अफ़सोस होता है कि कुछ शरारती तत्त्वों द्वारा गुरु गोबिंद सिंह जी और राजपूतों/क्षत्रियों के रिश्तों के बीच तनाव पैदा करने की नीयत से इतिहास को विकृत किया जाता है; प्रेरित नैरेटिव सेट किया जाता है लेकिन इतिहास को झुठलाना और ज़िंदा सबूत मिटाना इतना आसान भी नहीं होता।
देखने में आया है कि भंगानी और चमकौर साहिब की जंगों में गुरु गोबिंद सिंह के खिलाफ़ मैदान में उतरे कुछ चुनिंदा पहाड़ी राजाओं को ‘राजपूतों का खालसा के खिलाफ युद्ध’ बताया जाने लगा है जिसमें पूर्णतयः पक्षकारिता का प्रभाव है। यहां साफ़ करना ज़रूरी है कि गुरु गोबिंद सिंह का विरोध चुनिंदा पहाड़ी राजाओं ने ‘राजपूत’ होने या ‘धर्म/जाति व्यवस्था को डगमगाते देखकर’ नहीं किया, बल्कि यह विशुद्ध ‘सीमा’ और ‘वर्चस्व’ विवाद रहा।
गौरतलब है कि बिलासपुर (कोट केहलूर) के राजपूत राजा ने अपने राज्य में 70 किल्ला ज़मीन गुरु तेग बहादुर जी को दान की थी, जिसपर ही गुरु साहिब ने आनंदपुर साहिब शहर, किला और गुरुद्वारा बनवाया। साथ ही बता दूं कि गुरु गोबिंद सिंह को सिरमौर हिल्स में डेरा जमाने की जमीन और संसाधन भी एक पहाड़ी राजपूत राजा मेदनी प्रकाश ने ही मुहैया करवाए थे। यदि ऐसा कोई जातीय द्वंद्व होता तो खालसा की फौज का विरोध सब राजपूत एकमुश्त कर रहे होते। लेकिन सीमा विवादों के चलते तो पहाड़ी राजपूत राजा आपस में भी लड़-भिड़ रहे थे, जिसमें कोई धार्मिक या जातीय विरोधाभास का कारण नहीं था। इसीलिए कोई जंग राजपूतों और खालसा पंथ के बीच नहीं हुई, बल्कि भूस्वामित्व और वर्चस्व के लिए हुई।
और तो और, खालसा की फौज का चमकता सितारा बाबा बंदा सिंह बहादुर स्वयं जम्मू के एक राजपूत मिन्हास परिवार से थे। साथ ही याद दिलाऊं कि गुरु गोबिंद सिंह जी को शस्त्र विद्या और घुड़सवारी में पारंगत करने वाले उनके गुरु बजर सिंह राठौर एक राजपूत थे। ‘शस्त्र पूजा’ और ‘चंडी पूजा’ के गुण गुरु साहिब ने क्षत्रियों से लिए। खालसा के प्रतीकों, जैसे केसरी (ध्वज), कड़ा, केश, दाढ़ी और ‘सिंह’ उपनाम भी क्षत्रीय प्रभाव में अपनाया। राजपूत महिलाओं के नाम में लगने वाले ‘कंवर’ को खालसा पंथ में ‘कौर’ उपनाम के तौर पर अपनाया गया।
ये बीकानेर राज्य के सिपाही थे। जिन्हें पगड़ी बांधने का अंतर नही पता, वह आजादी पूर्व के राजपूत और सिख सैनिकों में अंतर बहुत ही मुश्किल से बता पाएगा। आज भी राजस्थान में आपको मांगदार दाढ़ी, लम्बे केश, पगड़ी और हाथ-पांव में कड़ा पहने हुए राजपूत पुरुष दिख जाएंगे जिनके भेष से सिख भेष हूबहू मेल खाता है।
आगे बढ़ें तो पाएंगे कि दशम ग्रंथ में गुरु गोबिंद सिंहजी खुद कहते हैं: “क्षत्रीय का पूत हूं, बाहमन का नहिं।”..यानी I am the son of a Kshatriya and not of a Brahmin who may instruct for performing severe austerities.
आगे बढ़ें तो मिलता है कि गुरु गोबिंद सिंह की अगुवाई में और खालसा पंथ से प्रभावित होकर राजपूत परिवारों में अपना सबसे बड़ा पुत्र लड़ने के लिए खालसा की फौज को समर्पित कर दिया जाता था। आज भी पंजाब हरियाणा हिमाचल के कई राजपूत परिवारों में सबसे बड़े पुत्र को श्रद्धा और परम्परा के चलते सिख पंथ में दीक्षा दिलवाई जाती है।
और ज़िक्र करें तो मिलते हैं गुरु गोबिंद सिंह जी के सबसे खास लड़ाकों में से एक, आलम सिंह चौहान नचना, जो सियालकोट के चौहान राजपूत भाई दुर्गु की सुपुत्र थे। आलम सिंह चौहान के शौर्य का ज़िक्र स्वयं गुरु महाराज ने ‘बच्चित्तर नाटक’ में करते हुए लिखा है कि जब लाहौर के सूबेदार दिलावर खान के पुत्र खानजादा ने आनंदपुर साहिब पर हमला करने की कोशिश की, तब आलम सिंह चौहान नचना की मुस्तैदी ने सिख लड़ाकों को चौकन्ना कर दिया और खानजादा को वापिस लौटना पड़ा।
सिख इतिहास में भाई मणि सिंह परमार का नाम भी उन सिख शहीदों में शामिल है, जो हिमाचल में नाहन से मुल्तान जा बसे एक ख़ास राजपूत परिवार से थे और आजीवन हरमंदिर साहिब में बतौर ग्रंथी सेवा करते रहे। भाई मणि सिंह ने गुरु गोबिंद सिंहजी की बाणी को दशम ग्रंथ के रूप में संचयित किया। लाहौर के मुगलिया गवर्नर जकारिया खान के आदेश पर इन्हें इसलिए पुर्जा पुर्जा काट कर शहीद किया गया क्योंकि इन्होंने बंदी छोड़ दिवस मनाने पर थोपा गया सरकारी लगान नहीं चुकाया था और सिखों पर हो रही मुगलिया हमले की गुप्त तैयारी का पता लगाकर सिखों को जुटान से पहले ही आगाह कर दिया था। इनके साथ इनके परिवार के तकरीबन 29 लोगों ने खालसा पंथ के लिए अपनी जान की कुर्बानी दी थी।
सिख इतिहास में ‘बंदी छोड़ दिवस’ भी राजपूतों और सिखों के रिश्तों की तस्दीक करता है जब गुरु हरगोबिंद साहिब के इसरार पर 52 राजपूत राजाओं के साथ ही गुरु साहिब को जहांगीर के ग्वालियर किले की जेल से छोड़ा गया।
यह तो पता होगा ही कि दिल्ली का बंगला साहिब गुरुद्वारा कभी जयपुर राजघराने का बंगला हुआ करता था, जहां कभी सिख गुरु हरकिशन साहिब ने आमेर के सवाई राजा जय सिंह के कहने पर डेरा डाला था लेकिन गुरु साहिब के व्यक्तित्व और तेज से प्रभावित होकर राजा जय सिंह ने अपना बंगला सिख गुरु को अर्पण कर दिया जहां आगे चलकर सरदार बघेल सिंह ने इसे विशाल गुरुघर का रूप दिया।
राजस्थान में सन 1708 में मुगलों के खिलाफ उठे ‘राजपूत विद्रोह’ में शामिल आमेर, मेवाड़ और मारवाड़ के राजाओं का ‘खालसा की फौज के जज़्बे से प्रेरित होना’, मुगलों के खिलाफ़ मोर्चा खोले जाने की एक बड़ी वजह बताया जाता है।
राय बुद्धि चंद घोड़ेवाहा (राजपूत) को मुगलों के खिलाफ चमकौर में गुरु गोबिंद सिंह जी को आश्रय प्रदान करने के लिए सूबेदार वज़ीर खान के आदेश से मार डाला गया था। गुरुद्वारा दमदमा साहिब को राय रूप चंद द्वारा दी गई भूमि पर बनाया गया है।
इतिहास को साफ नज़र और साफ नीयत से देखने पर यह पुख्ता होता है कि राजपूतों और सिखों में कभी कोई नस्ली या जातीय द्वंद नहीं रहा। इसीलिए ज़रूरी है कि आज तोड़क शक्तियों के इस दौर में हम ‘जोड़ने’ को कवायद पर ज़ोर दें।

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