राजपूतिकरण के मोहपाश में फंसा बहुजन समाज


माननीय हाई कोर्ट ने हालही में फैसला दिया कि जातीय भेदभाव से बचने के लिए एक व्यक्ति अपना जातीय उपनाम बदल सकता है या जो मन करे, वह जातीय उपनाम लगा सकता है।

इस फैसले से सबसे पहले तो ‘दहाड़’ (फिल्म) का वह सीन याद आया जब दलित हवलदार अंजली भाटी (सोनाक्षी सिन्हा) अपने पिता द्वारा अपनाया हुआ ‘भाटी’ उपनाम त्यागकर स्वाभिमान से अपना असली उपनाम (मेघवाल) अपनाती है।

लेकिन इसी टेंडेंसी को टटोलते हुए हमें मिलते हैं एक्टर सुशांत सिंह (जाट), जिन्होंने पत्रकार सुमित चौहान (दलित पत्रकार, जो खुद भी क्षत्रिय कुल CHAUHAN उपनाम लगाते हैं) को दिए एक ताज़ा इंटरव्यू में कहा कि उन्होंने अपना नाम सुशांत कुमार से सुशांत सिंह बदल लिया था क्योंकि उन्हें सुशांत ‘सिंह’ में ज़्यादा ‘वज़न’ लगता था।

रवीश की रिपोर्ट का एक पुराना एपिसोड देख रही थी जिसमें रवीश जी और सर्वप्रिया उत्तरप्रदेश के एक कुर्मी बहुल गांव में चुनावी जायज़ा लेने जाते हैं और गांववाले उन्हें बताते हैं कि वे कुर्मी हैं लेकिन ‘सिंह’ उपनाम लगाते हैं।

ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की ‘भय’, ‘मैं ब्राह्मण नहीं हूं’, ‘अंधड़’ और ‘दिनेशपाल जाटव उर्फ दिग्दर्शन’ जैसी कहानियां में भी दलित पात्र सवर्ण पहचान अपनाए हुए मिलते हैं। मेरे एक पत्रकार मित्र ने अपनी गुजरात यात्रा के दौरान सांझा किया कि कैसे कुछ दलित गुजरात में सिंह, सोलंकी, राठौड़ जैसे राजपूत उपनाम रखने लगे हैं।

उत्तर प्रदेश और बिहार में आर्य समाज के प्रभाव में धीरे-धीरे कैसे अहीरों ने यदुवंशी (क्षत्रीय) कुल का ‘यादव’ उपनाम अपनाया, यह तो सर्वविदित (तथ्य) है।

कुछ साल पहले पुष्कर जाना हुआ था, वहां एक आर्टिस्ट मिले जो आपके परिवार की फोटो के आधार पर आपका ‘रॉयल पोर्ट्रेट’ बना सकते थे, जिसमें आप और आपका परिवार शाही लिबास में राजसी अंदाज़ में रजवाड़ों की तरह पोज़ करते हुए दिखाए जाएंगे! मैंने उनसे पूछा कि आम लोग ऐसे पोर्ट्रेट क्यों बनवाते हैं? तो उन्होंने जवाब दिया कि सब ‘राजशाही की फील’ लेना चाहते हैं। कई साल बाद इस social phenomenon का असल शब्द मिला, ‘RAJPUTISATION’ या ‘राजपूतीकरण’.

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Hermann Kulke, Christophe Jaffrelot, Clarinda Still, Lucia Michelutti जैसे कई विख्यात लेखकों ने तफ़्सील से लिखा है कि राजपूत जीवनशैली के प्रतीकों और टाइटलों का समाजार्थिक तौर पर कथित निचले पायदान के समुदायों द्वारा अपनाया जाना Rajputisation कहलाया। राजपूती प्रतीकों का अंगीकरण करके अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाना मुख्यतः ओबीसी और आदिवासी समुदायों में देखा गया। यदुवंशी राजपूतों के यादव टाइटल का अहीरों द्वारा अंगीकरण India’s silent revolution :The Rise of the Lower Castes in North India और Sons of Krishna जैसी किताबों में बड़ी डिटेल में समझाया गया है। स्मिता यादव की Precarious Labour and Informal Economy में वो इंगित करती हैं कि बुन्देलखण्ड के गोंड आदिवासियों में भी dominant group राजपूतों के प्रतीकों और रिवाज़ों का अनुकरण  होता मिलता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

श्रीनिवास के Sanskritisation और मुस्लिमों में होने वाले Ashrafization की ही तर्ज़ पर राजपूती परंपराओं का अनुकरण एक जड़ जातीय व्यवस्था में mobility लाकर सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाना रहा है। आम समाज में आज भी व्याप्त इसी INHERENT ROYAL ASPIRATION को भुनाने के लिए ब्रैंड ‘बना-बाईसा’ कलेक्शन निकालते हैं, होटलों-रिजॉर्ट में रॉयल फील देने के लिए खास व्यवस्था की जाती है, दूल्हे आज भी महाराजा की तरह तलवार लेकर घोड़ी चढ़कर ब्याहने आते हैं। कहीं न कहीं, समाज में प्रतिष्ठा के लिए राजपूती रिवायतें ही अपनाने की कोशिश आज भी जारी है।

RAJPUTISATION का यह ट्रेंड उस वक्त तो सही ठहराया जा सकता था, जब मार्शल आधार पर फौज में भर्तियां होती थी, सामाजिक प्रतिष्ठा भी dominant group होने से जुड़ी थी लेकिन रजवाड़ों/राजशाही के पतन के बाद लोकतांत्रिक समाज में भी इस RAJPUTISATION के TRAIT का पाया जाना थोड़ा पेचीदा है।

लेकिन इस बारे में दो सवाल उठते हैं। अगर पॉपुलर डिस्कोर्स में राजपूत या क्षत्रीय समुदाय को सामंतवादी/अत्याचारी ही दर्शाया जाता रहा है तो क्यों क्षत्रिय/राजपूत समुदाय के उपनाम/जातिगत पहचान ही बहुजनों द्वारा अपनाने पर ज़ोर दिया गया है?

दूसरा सवाल, जो ‘जातीय चेतना’ एक काल्पनिक चरित्र अंजली (दहाड़) में जाग उठती है, वह जातीय चेतना हमारे बहुजन लीडर और थिंकटैंक आजतक बहुजनों में क्यों नहीं जगा पाए? क्यों बहुजन आज भी ‘कथित’ शोषक वर्ग (क्षत्रीय/राजपूत) की पहचान ही अपने साथ नत्थी किए हुए खुद को महफूज समझता है, जबकि उसके संरक्षण के लिए SC/ST ACT जैसे कड़े कानून आज मौजूद हैं?

आज ओबीसी और आदिवासी समाज जागरूक है, ASSERTIVE है, अपना इतिहास टटोल रहा है और अपना इतिहास OWN भी करता है। अपनी IDENTITY को लेकर मुखर है और राजनीतिक दबदबा कायम होने के बाद अब किसी भाड़े की पहचान का मोहताज भी नहीं। लेकिन पंजाब राव देशमुख, ललई सिंह यादव, जोतिबा फूले, रामस्वरूप वर्मा, राव तुला राम, चौधरी ब्रह्म प्रकाश यादव, रमाशंकर विद्रोही, अहिल्या बाई होलकर, सावित्रीबाई फुले, दक्ष प्रजापति, गुहराज निषाद जैसे अनेकों icon और हीरो होने के बाद भी ओबीसी समाज को क्यों राजपूतों के ही ऐतिहासिक नायकों की APPROPRIATION में आज भी लगाया जा रहा है?

 

 

 

 

 

 

 

क्यों हर साल मेजर ध्यानचंद (बैस) को राजपूत से कुशवाहा सिद्ध करने की कोशिश की जाती है, जबकि उनकी अपनी जीवनी में उन्होंने साफ़ उल्लेख किया है कि वे एक राजपूत परिवार में जन्मे!? गौरतलब है कि कुशवाहा शब्द जो स्वयं आज कोयरी समाज द्वारा अपनाया हुआ है, वह मूलतः जयपुर चम्बल के एक राजपूत वंश का ही नाम है।

क्यों मिहिरभोज प्रतिहार, पृथ्वीराज चौहान, राणा पुंजा और पीर गोगाजी जैसे क्षत्रीय पुरखों की असल पहचान मिटाकर उनके इतिहास की बहुजन समुदाय में बौद्धिक बंदरबांट चालू है?

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

क्या आज खुद को क्षत्रीय सिद्ध करने वाले नए जातिसमूह जाति-जनगणना में भी खुद को क्षत्रीय कहलाना पसंद करेंगे? 

शाहूजी महाराज का पूरा कथन सुनिए, “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। जितनी जिसकी हिस्सेदारी, उतनी उसकी भागीदारी। जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी जिम्मेदारी!”

हिस्सेदारी के साथ आने वाली भागीदारी और जिम्मेदारी से ही नारा पूरा होता है, है कि नहीं?


क्षत्रिय सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक चेतना मंच।

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