सतिप्रथा का ठीकरा और ठाकुर का सिर


सती प्रथा का ज़िक्र हालही में सोशल मीडिया में फिर सुर्खियों में तब आया जब 2023 में अहमदाबाद की 28 वर्षीय इंजीनियर संगीता लखरा पर उसके ससुराल पक्ष द्वारा पति की मृत्यु उपरांत सती होने का दबाव बनाया गया और ऐसे में मानसिक तनाव में आकर उसने आत्महत्या कर ली। इस घटना के बाद सती प्रथा को फिर से टटोला जाने लगा और घूमफिर कर सोशल मीडिया के स्वघोषित एजेंडाबाज विशेषज्ञों ने सती के बहाने क्षत्रीय समाज को टारगेट करना शुरू किया। इससे पहले सतिप्रथा के जिस केस को सबसे विवादास्पद बनाकर मीडिया ने परोसा था, वह था राजस्थान में 18 वर्षीय रूपकंवर के सती होने का, जिसके तुरंत बाद, राज्य सरकार द्वारा सती (रोकथाम) अधिनियम, 1987 लागू किया गया जिसमें सती का महिमामंडन करने वालों को दंडित करने का प्रावधान था। सनद रहे कि 1829 में, ब्रिटिश भारत के सभी न्यायालयों में सती प्रथा (प्रथा) पर प्रतिबंध लगाने वाला बंगाल सती विनियमन तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिन द्वारा पारित हो चुका था।

लेकिन सती प्रथा के बहाने रूपकंवर केस को नज़ीर बनाकर मीडिया के मठाधीशों और बौद्धिक जगत के वडेरों ने जानबूझकर इस कुप्रथा का एकमुश्त ठीकरा क्षत्रीय समाज पर फोड़ इन्हें बदनाम करने की कोशिश की है। जबकि सती प्रथा के इतिहास का विश्लेषण करें तो मालूम चलता है कि राजपूताना के राजपूतों में सती प्रथा का प्रचलन बहुत देर से आया। 1000 ई. तक राजपूताना में सती का कोई अन्य मामला दर्ज नहीं है। सबसे पहला अभिलेख 842 ई. में चाहमान राजा चंदमहासेन की माता के सती होने का मिलता है।
आइए एक नज़र डालते हैं सती प्रथा कर इतिहास पर और खोजते हैं सती प्रथा के पदचिह्न उन जगहों पर, जिनका ज़िक्र जानबूझकर दबाया और छिपाया जाता है।
• बंगाल: सतीप्रथा का आधुनिक उद्गम स्थल
सरकारी आँकड़ों के अनुसार 1815 से 1829 के बीच 14 वर्षों में 8134 विधवाएँ सती हुईं, जिनमें से 60% से अधिक मामले कलकत्ता में ही दर्ज किये गये। बंगाल को अगर सती प्रथा का आधुनिक उद्गम स्थल मानें तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
बंगाल में संपत्ति के उत्तराधिकार संबंधी लागू दयाभाग प्रणाली में एक बिना पुत्र की बंगाली विधवा को भी उसके मृत पति की संपत्ति का उत्तराधिकारी होने का अधिकार और मान्यता प्राप्त है। इसीलिए विधवाओं को उत्तराधिकारी बनाने से रोकने का सबसे सुरक्षित और सबसे पवित्र तरीका निकाला गया सती प्रथा का, जिसमें विधवा को पति की चिता के संग आत्मदाह करने के लिए धर्म और रीत के नाम पर प्रेरित किया जाने लगा। यह औरत को संपत्ति में अधिकार देने से रोकने के लिए सुझाया गया एक कुटिल तरीका था। पहले ब्राह्मण औरतें के सती होने पर पाबंदी थी, लेकिन बाद में धर्म और समाज के ठेकेदारों द्वारा उनके सती होने को मान्यता दे दी गई।
बंगाल में सतियों का प्रतिशत बनारस से भी कहीं अधिक था, जो रूढ़िवाद का सबसे बड़ा केंद्र था। बंगाल और उत्तर प्रदेश में अधिकांश सतियाँ ब्राह्मण समाज से थीं। यह स्पष्ट है कि ब्राह्मण विधवाओं के सती बनने पर लगे वैधानिक प्रतिबंध को हटाने का सबसे अधिक प्रभाव गंगा के मैदानी क्षेत्र में पड़ा।
‘Socioeconomic Impact of Sati in Bengal’ में बेनॉय भूषण रॉय लिखते हैं कि सती प्रथा ब्राह्मणों के बीच सबसे अधिक प्रचलित थी, लेकिन यह प्रथा निचली जातियों के परिवारों में भी पाई गई, जिनकी धन या संपत्ति में विशिष्ट स्थिति थी। वास्तव में, सती की संभावित बढ़ी हुई आवृत्ति ने ऊर्ध्वगामी शूद्र परिवारों के बीच उच्च सामाजिक स्थिति की आकांक्षा को प्रतिबिंबित किया होगा।लेकिन, जैसा कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में आधिकारिक रिकॉर्ड से पता चलता है, सतिप्रथा अधिक समृद्ध लोगों तक ही सीमित नहीं थी; बल्कि यह प्रथा कई अन्य जातियों और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों में भी पाई जाने लगी थी।
• भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में सतिप्रथा• 
✓ महाभारत में आत्मदाह (सती) की कम से कम तीन घटनाएं दर्ज हैं: पांडु की पत्नी माद्री की, वासुदेव की चार पत्नियों की और कृष्ण की मृत्यु के बाद उनकी पांच पत्नियों का आत्मदाह।
✓ निकोलो डी कोंटेई का कहना है कि विजयनगर के राजाओं की लगभग 3000 पत्नियों और उपपत्नियों को उनके स्वामी की मृत्यु पर उनके साथ जला देने की प्रतिज्ञा की जाती थी और अक्सर मंत्री और महल के नौकर भी राजा की मृत्यु के समय उनके साथ होते थे।
✓ सिकंदर महान और यूनानी, पंजाब में सती प्रथा के चश्मदीद बने। पहली शताब्दी ईसा पूर्व में रहने वाले यूनानी डायोडोरस सिकुलस ने ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पंजाब के बारे में अपने विवरण में सती प्रथा का उल्लेख किया था।
✓ 1044 ई. में, राजेंद्र चोल की पत्नियां वनवन महादेवियार, मुक्कोकिलन, पंचवन महादेवी, अरिंधवन मादेवी और वीरमादेवी सती हो गईं।
✓ कल्हण ने राजतरंगिणी में रानी गर्गा और दिद्दा का सती के रूप में उदाहरण दिया है।
✓ एपिग्राफिया कर्नाटका 1000-1400 ईस्वी के बीच सती के 11 मामलों और 1400-1600 ईस्वी के दौरान 41 मामलों की बात करता है। उनमें से अधिकांश नायक और गौड़ा जातियों के मार्शल समुदायों से संबंधित हैं।
✓ मराठों के साथ शासनकाल में सती प्रथा एक अपवाद थी। शिवाजी की केवल एक पत्नी सती हुई। राजाराम का भी यही हाल था। पेशवाओं में केवल माधवराव प्रथम की विधवा रमाबाई सती हुईं। 1749 में शिवाजी के पोते शाहू की पत्नी सती हो गयी।
✓ महान रानी अहिल्याबाई की बेटी मुक्ताबाई 1792 में अपनी मां के पुरजोर अनुरोध करने के बावजूद सती हो गईं।
✓ जब सिख महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हुई, तो चार रानियाँ और सात रखैलें सती हो गईं। महाराजा खड़ग सिंह की मृत्यु के साथ 3, बसंत सिंह के साथ 5, किशोरी सिंह के साथ 11 और महाराज हीरा सिंह के साथ 24 महिलाएँ सती हो गईं।
✓ दीग पर कब्जे के दौरान तीन जाट रानियों ने आत्महत्या कर ली ताकि खुद को हमलावर नजफ खां और उसके ब्राह्मण तंख़्वाहदार हिम्मत बहादुर गोसाईं से बचा सकें।
✓ हीरालाल ने अपनी पुस्तक इंस्क्रिप्शंस फ्रॉम सेंट्रल प्रोविंस में सागर के पास के शिलालेखों का उल्लेख किया है, जिनमें 1500-1800 ईस्वी के बीच सती के मामले दर्ज हैं, जिनमें से अधिकांश बुनकर, राजमिस्त्री और नाई वर्गों से संबंधित थे।
• राजपूत और सतिप्रथा •
भारतीय उपमहाद्वीप में फैले धार्मिक और सामाजिक प्रभाव ने धीरे धीरे राजपूताना पर भी अपना असर दिखाना शुरू किया और सती प्रथा की आमद इस मरुभूमि में हुई। महिलाओं द्वारा अपने पतियों की चिता के पास आत्मदाह करने की प्रथा को सती प्रथा कहा जाने लगा और इन महिलाओं को बलिदान देने वाली सतीमाता के रूप में याद किया जाता था
गौरतलब है कि राजपूतों में बलिदान और त्याग का परम महत्व रहा है और युद्धभूमि में बलिदान देने वाले जुंझार योद्धाओं की ही तरह बलिदानी सतियों को भी पूजनीय दर्जा दिया जाने लगा।
कहा जाता है कि इन सतिमाताओं के स्मारक मीठी, नागरपारकर, इस्लामकोट, चाचरो के साथ-साथ भारत में सरहदी राजस्थान और गुजरात में आज भी मिलते हैं, जिन्हें मानवविज्ञानी जुल्फिकार अली कल्होरो ने बड़े पैमाने पर दर्ज किया है।
ऐसा ही एक अन्य ऐतिहासिक स्मारक पत्थर झोमा सती का है, जो थारपारकर जिले के चाचरो तालुका में स्थित है। यह सती चारण समुदाय से थीं। मेघवाल और भील समुदाय द्वारा उनकी पूजा की जाती है। राजस्थान में धोबी और ब्राह्मण समाज के सती मंदिर और छतरियां भी मिलती हैं।
लेकिन राजपूतों में भी सती प्रथा कभी जबरन नहीं थोपी गई और न ही राजपूतों में सती प्रथा कभी अनिवार्य रही। कनैतों और नात्रायत राजपूतों में विधवा पुनर्विवाह भी हुए। यह साबित करता है कि राजपूतों के संबंध में सबसे अधिक प्रचारित मिथकों में से एक यह है कि वे विधवा पुनर्विवाह में विश्वास नहीं करते और सती प्रथा को अनिवार्यता से थोपते आए हैं।
• सती प्रथा और प्रगतिशील नैरेटिव •
यूं तो दुनिया के और हिस्सों में भी सती जैसी आत्मदाह की प्रथाएं चली आ रही थीं। जर्मनिक कबीलों में पति के साथ वलहल्ला जाने के लिए कबीलाई सरदार की विधवाओं का आत्मदाह करना आम प्रचलन था। सीथियनों ने भी ऐसा ही एक संस्कार अपनाया हुआ था। सती की यह पैन-इंडो-यूरोपीय घटना इस बात की पुष्टि करती है कि सती प्रथा इंडो-आर्यन जनजातियों में सदियों से प्रचलित रही थी। इन पश्चिमी प्रथाओं के इतिहास से भलीभांति परिचित रहे अंग्रेजों ने भारतीय उपमहाद्वीप की सती प्रथा को इसीलिए भी सनसनीखेज बना दिया क्योंकि वे यह दिखाना चाहते थे कि यह अंग्रेज़ ही थे जिन्होंने ऐसी भयानक परंपराओं को ख़त्म किया था और यदि अंग्रेज़ भारत छोड़ गए तो भारत को फिर से बर्बरता का शिकार होना पड़ेगा। (The White Man’s Burden) मनोवैज्ञानिक लाभ की तलाश में, अंग्रेजों ने कई तरीकों से अपने औपनिवेशिक विषय (colony) पर अपनी नैतिक श्रेष्ठता प्रदर्शित करने का प्रयास किया।
प्रगतिशील कहलाने वाले भारतीय लेखक समूहों, टिप्पणीकारों और इतिहासकारों ने भी समय समय पर सतीप्रथा के बहाने राजपूतों के इतिहास और परंपराओं पर हमला बोला है। जहां यह सर्वविदित है कि राजपूतों में सतीप्रथा बहुत देर से आई और अनिवार्य नहीं रही; लेकिन इसके विपरित रूपकंवर सतीकांड को रेफरेंस प्वाइंट बनकर सतीप्रथा जैसी कुरीति का सारा ठीकरा राजपूत समाज पर फोड़ा जाता है और बड़ी चालाकी से बंगाल, उत्तर भारत, दक्षिण, महाराष्ट्र और मध्य भारत में ब्राह्मण, मेघवाल, सिखों और मराठों जैसे अलग अलग जातिसमूहों में प्रचलित सतिप्रथा पर मौन धारण कर लिया जाता है
स्त्रीवादी नज़रिए से सतिप्रथा का अन्वेषण करते हुए बौद्धिकों द्वारा अक्सर सती और जौहर को गड़मड्ड कर दिया जाता है। जबकि सती प्रथा एक विधवा द्वारा अपने पति की चिता के साथ आत्मदाह करने की प्रथा थी और जौहर महिलाओं द्वारा किया गया सामूहिक आत्मदाह था ताकि पराजित होने पर आक्रमणकारियों द्वारा पकड़े जाने और दासता में धकेले जाने से बचा जा सके। अमूमन जौहर और साका साथ में हुआ करते थे, जिसमें राजपूत योद्धा भी केसरिया पहनकर युद्धभूमि में आत्मबलिदान देने की नीयत से उतरते थे और पीछे महिलाएं भी आखिरी विकल्प के रूप में आत्मबलिदान की अग्नि में खुद को झोंक दिया करती थीं।
हालांकि युद्धों में अमूमन आक्रांताओं के कब्जे के बाद मौजूदा शाही औरतें और शहजादे सबसे ज़्यादा सुभेद्य शिकार बन जाते हैं और इस दुश्वारी में आत्मसमर्पण, आत्मदाह और आत्महत्या ही आखिरी विकल्प होते हैं; चाहे 21वीं सदी के लेंस से देखने पर कितना भी अप्रिय क्यों न लगे! जौहर भी इसी तरह क्षत्रीय रानियों का अपना आत्मसम्मान बचाने का आखिरी विकल्प हुआ करता था। आक्रांताओं की गुलामी या एक अनिश्चित भविष्य की तुलना में सामूहिक आत्मदाह एक मुश्किल मगर निर्णायक चुनाव होता था।
1947 के भारत विभाजन के समय कितनी ही औरतों ने अपना आत्मसम्मान बचाने के लिए मजबूरन अपनी जान दे दी। रावलपिंडी के गांव टोहा खालसा में सिखों के कत्लेआम के बाद सिख औरतों का कुएं में कूदकर जान दे देना उसी दुश्वारी भरे काल का सबूत है। 21वीं सदी की ग्रहणशीलता के लेंस से मध्ययुगीन दौर की विभीषिका को नहीं आंक सकते। हालात, दौर और विकल्प हर घटना को अलग बनाते हैं।
ना तो जौहर और न ही सती राजपूत समाज में अनिवार्य हुआ करते थे लेकिन स्त्रीवादी प्रगतिशीलता के नैरेटिव में इन्हें जोड़तोड़कर ऐसे प्रस्तुत किया जाता है मानो ये जबरी रीतियां ही राजपूती सम्मान का खोखला प्रतीक रही हों।
इतिहास में यह साफ तौर पर दर्ज है कि कितनी ही रानियों ने अपने पति को मृत्यु पश्चात भी राजकीय जिम्मेदारियां निभाईं और समाज में मान्य भी रहीं। उदाहरण के तौर पर मेवाड़ के महाराणा आदि सिंह की 1772 ई में मृत्योप्रांत उनकी रानी ने अपने पुत्र हमीर द्वितीय के स्थान पर राजकीय प्रशासन संभाला। चावड़ा और लाखा राजपूतों के बीच 14वीं शताब्दी में रहे संघर्ष के चलते कई चावड़ा राजकुमारियां असमय विधवा हो जाती थीं लेकिन सती नहीं हुआ करती थीं।
लेकिन राजपूतों को नारीविरोधी दर्शाने की नीयत से बार बार जौहर जैसी मध्ययुगीन त्रासदी को इक्कीसवीं सदी के लेंस से देखा दिखाया जाता है और इसी बहाने सती और जौहर को एक बताकर राजपूतों के खिलाफ एक सिलसिलेवार दुष्प्रचार फैलाया जाता है
• निष्कर्ष •
सतिप्रथा जैसी कुरीति के सामाजिक-आर्थिक कारणों को ढूंढने से साफ होता है कि बलिदान का बहाना कर स्त्री की स्वतंत्र पहचान और उत्तराधिकार को खत्म करने के लिए समाज और धर्म के ठेकेदारों ने इसे प्रचारित किया और इस कुरीति का उन्मूलन और निंदा करने वालों ने भी अपनी सुविधा और सियासत के अनुरूप इसे इस्तेमाल किया। ऐसे में सतिप्रथा के इतिहास और सामाजिकी को निर्लिप्त भाव से देखने पर ही नज़रों के जाले साफ़ हो सकते हैं और नैरेटिव के फैलाए मायाजाल को तोड़ सही जवाब मिलते हैं।

क्षत्रिय सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक चेतना मंच।

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