“ठाकुर का कुआँ “: वर्चस्व की ज़मीनी हकीकत से भ्रमित करता ब्राह्मणवादी मीडिया
कुछ समय पूर्व नए पार्लियामेंट के नए शेषन में गुज्जर नेता रमेश भिडूडी द्वारा सांसद कुंवर दानिश अली को जिहादी और उग्रवादी बोलकर संबोधित किया, जिसकी घोर निंदा भी की गई। इसी संसदीय शेषन में राजद सांसद मनोज झा ने महिला आरक्षण बिल पारित होने के संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता “ठाकुर का कुआँ” से की, जिस पर राजद और जेडीयू के क्षत्रिय नेताओं के विरोध के बात विवाद छिड़ा।
किन्तु जहां भिडूडी की अमर्यादित एवं प्रत्यक्ष विद्वेष का एकमत खंडन हुआ, वहीँ झा को ब्राह्मण प्रभुत्व वाले मिडिया एवं अकादमिक वर्ग द्वारा समर्थन मिला – प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद झा द्वारा श्री सिद्धार्थ वरदराजन के द वायर में छपा आलेख एवं मनोज झा का बीबीसी की रूपा झा को दिया इंटरव्यू इसके दो उदहारण है।
हालांकि क्षत्रिय लेखकों के अलावा कई दलित एवं ओबीसी चिंतकों ने भी वाल्मीकिजी की कविता की एक ब्राह्मण द्वारा अप्प्रोप्रियेशन पर सवाल उठाये किन्तु प्रोफ़ेसर मनोज झा एवं अपूर्वानंद झा के तर्कों का सुनियोजित खंडन आवश्यक है। प्रोफ़ेसर दिलीप मंडल ने भी इस बात को रेखांकित किया कि कविता का सांकेतिक उद्देश्य बदल जाता है जब वह एक दलित चिंतक की बजाय एक ब्राह्मण राजनेता द्वारा बोली जाए।
1. क्या ठाकुर वर्चस्व का प्रतीक है?
बीबीसी के लिए श्री रूपा झा को दिए अपने इंटरव्यू में श्री मनोज झा ने बड़ी आसानी से कह दिया कि “ठाकुर” एक वर्चस्व का प्रतीक है जो न्यायालय में, विश्वविद्यालय में लोगों की एंट्री रोकता है। सवाल यह उठता है की 1947 के बाद से ही मिडिया, न्यायलय, विश्वविद्यालय और बिजनेसों में ठाकुरों का खुदका प्रतिनिधित्व कितना रहा है, जो उन्हें ऐसे किसी वर्चस्व का प्रतीक माना जाए ।
इसी तरह प्रोफेसर मनोज झा द्वारा संसद में “ठाकुर का कुआं” कविता बोलने के कृत्य के समर्थन में प्रोफेसर अपूर्वानंद झा ने द वायर में “मनोज झा के वक्तव्य पर प्रतिक्रिया ने दिखाया कि ‘उच्च जातियां’ अपना वर्चस्व नहीं छोड़ना चाहतीं” शीर्षक से आलेख प्रकाशित किया। हालांकि प्रोफेसर अपूर्वानंद झा द्वारा श्री मनोज झा के समर्थन में लिखे इस आलेख से यह पता नहीं चल पाता कि इस घटना में जातिय वर्चस्व ठाकुर (राजपूत) का है या झा (ब्राह्मण) समाज का है?
आज सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस ब्राम्हण है, सुप्रीम कोर्ट के 32 में से 14 न्यायाधीश ब्राम्हण है, तो भी वहां वर्चस्व का प्रतीक ठाकुर कैसे ? सभी मुख्य विश्वविद्यालयों के डीन एवं प्रोफेसरों की भी सूचि देखें तो वहां भी ठाकुरों बेहद मुश्किल से दीखते हैं, जबकि इन सूचियों में भी ब्राह्मण, बनिया, कायस्थ, खत्री, जाटों और यादवों का प्रभुत्व क्षत्रियों से ज़्यादा ही पाया जाएगा। लगभग सभी बड़े मिडिया हाउसेस, ब्राह्मणों द्वारा संचालित एवं नियंत्रित हैं। ब्राह्मणों के बाद भी खत्री, कायस्थ एवं बनिया समाज का ही प्रभुत्व मिलता है। जब पब्लिक नरेटिव पर भी इन्हीं समुदायों का एकतरफा दबदबा है तब वर्चस्व का प्रतीक ठाकुर कैसे ?
इस वर्चस्व का ही प्रमाण है जब “ठाकुर का कुआं” कविता के सन्दर्भ में प्रोफ़ेसर मनोज झा (मैथिल ब्राह्मण) के पक्ष में प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद झा (मैथिल ब्राह्मण) श्री सिद्धार्थ वरदराजन (तमिल ब्राह्मण) की मिडिया पोर्टल पर अपनी राय दे पाते हैं और बीबीसी की रूपा झा (मैथिल ब्राह्मण) भी मनोज झा (मैथिल ब्राह्मण) का इंटरव्यू लेती हैं। सवाल उठता है कि क्यों किसी क्षत्रिय प्रोफ़ेसर या बुद्धिजीवी का इंटरव्यू नहीं लिया गया अथवा उनके मतभेद नहीं सुने गए?
क्यों अक्सर मिडिया में ठाकुरों की ओपिनियन के नाम पर या अशिक्षित उपद्रवियों का इंटरव्यू लिया जाता है या ऐसे ठाकुरों का जो अपनी सामाजिक स्वीकार्यता के लिए स्थापित एंटी क्षत्रिय मीडिया नरेटिव की हाँ में हाँ मिलाते हैं?अतः मनोज झा जी का “अंदर के ठाकुर” को मारने की बात केवल अजीब विडंबना है।
ईमानदारी से ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की कृतियों का पुनर्वलोकन करें तो हम पाते हैं कि उनके रचनाकर्म में शोषक के चेहरे और (उप)नाम गैर-ठाकुर ही ज़्यादा हैं, जिन्हें लोकप्रिय माध्यमों द्वारा कम उठाया जाता है। ज़ाहिर है, यह इसीलिए भी हो सकता है क्योंकि साहित्य जगत और अकादमिक जगत में जिन जाति समूहों का वर्चस्व है, वे नहीं चाहते कि दलित चेतना की धुरी ठाकुर नामक शोषक से इतर किसी और समूह की ओर घूमे।
2. क्या ठाकुरों को शहरी फॉरवर्ड कास्ट के साथ क्लब करना ठीक है ?
मनोज झा केविश्वभर में फिल्में , साहित्य, मिडिया और आकादमिया तो स्वयं वर्चस्ववाद के स्तम्भ रहे हैं। ऐसे में यदि भारत में ठाकुर वर्चस्व है, तो क्षत्रिय प्रतिनिधित्व और चित्रण के परिपेक्ष्य से सदैव अपेक्षित क्यों रहे हैं ? वहीँ यह प्रश्न भी उठता है कि इन सभी क्षेत्रों में ब्राह्मण बनिया कायस्थ खत्री समाज के साथ साथ जाट वर्ग का महिमामंडन क्यों होता आया है। मनोज झा के समर्थन में लिखे अपने आलेख में प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद झा क्षत्रियों को बार बार ब्राह्मण बनिया कायस्थ, खत्री के साथ क्लब कर सवर्ण वर्चस्ववाद का जनरलाइजेशन करते हैं। इस पर यह प्रश्न उठता है कि ब्यूरोक्रेसी में, भारत रत्न की सूचि में, मिडिया हॉउस में, अकादमिक बॉडीज में इन जातियों का कितना प्रतिनिधित्व है और क्षत्रियों का कितना ?
प्रोफ़ेसरअपूर्वानंद झा एक सम्मानित बुद्धिजीवी हैं। अतः उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि एक ग्रामीण कृषि प्रधान समाज होने के नाते, क्या क्षत्रियों की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक स्थिति की तुलना शहरी व्यापारी जातियों से की जा सकती है जिनका सल्तनत काल से ही ब्यूरोक्रेसी एवं व्यवसाय पर दबदबा रहा है। ब्राह्मण खत्री प्रभुत्व वाली फिल्म इंडस्ट्री एवं ब्राह्मण बनिया प्रभुत्व वाली मिडिया ने भी उनके विरुद्ध घृणा द्वारा उनकी सामजिक पूंजी भी ख़त्म की। ब्राह्मण बनिया कायस्थ खत्री वाले बौद्धिक वर्ग में तो वे ब्रिटिश काल से ही अपेक्षित रहे हैं।
विश्वभर में फिल्में , साहित्य, मिडिया और आकादमिया तो स्वयं वर्चस्ववाद के स्तम्भ रहे हैं। ऐसे में यदि भारत में ठाकुर वर्चस्व है, तो क्षत्रिय प्रतिनिधित्व और चित्रण के परिपेक्ष्य से सदैव अपेक्षित क्यों रहे हैं ? वहीँ यह प्रश्न भी उठता है कि इन सभी क्षेत्रों में ब्राह्मण बनिया कायस्थ खत्री समाज के साथ साथ जाट वर्ग का महिमामंडन क्यों होता आया है।
3. ठाकुरों का वर्चस्व कब था ?
आज से 4 पीढ़ी पहले ही डॉक्टर आंबेडकर ने भारतीय वर्चस्ववादी वर्ग की पहचान “ब्राह्मण बनिया” वर्ग के रूप में की थी। अतः क्षत्रियों का वर्चस्व हाल फिलहाल में ख़त्म हुआ, ऐसा नहीं है भले ही ब्राह्मण बनिया खत्री वर्ग द्वारा नियंत्रित बौद्धिक वर्ग एवं सिनेमाई जगत ठाकुरवाद का माहौल बनाती रही।
अतः यह कहना गलत होगा कि क्षत्रियों का वर्चस्व हाल फिलहाल में ही अचानक ख़त्म हो गया। 1857 के समकालीन जॉर्ज मेलेसन ने अंग्रेज़ों द्वारा क्षत्रिय एवं मुस्लिम जमींदारों से ज़मीनें छीन नॉन-मर्शियल मुंशियों, सेठों, कायस्थों को देने का विस्तृत विवरण दिया है। ब्रिटिश इंडिया में 1857 के बाद उदय हुए नव अभिजात वर्ग इन्हीं समुदायों से बना था। रियासतों में भी ब्रिटिश एजेंटों द्वारा सुनियोजित प्रशासनिक बदलाव के उपरान्त केंद्रीय व्यवस्था का सृजन हुआ जिसमें भी प्रशासन जैन, ब्राह्मण, महाजन, खत्री एवं कायस्थ ही था, । अतः आज़ादी से सौ साल पहले ही इस वर्ग का आम क्षत्रियों पर वर्चस्व स्थापित हो गया था। इसका यह अर्थ है कि जिस वर्ग का ब्रिटिश प्रशासन में प्रभुत्व था, वहीँ तथाकथित राजपूत रियासतों में प्रशासनिक तानाशाही रखते थे।
महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय (1873-1895) के वक्त मारवाड़ राज्य के सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारियों की सूची:1. सरदार सिंह मेहता (बनिया) : राज्य के दीवान । 2. मुंशी हरदयाल सिंह (कायस्थ) : विभिन्न न्यायालयों के अधीक्षक होने के साथ ही मालनी क्षेत्र के भी हैड थे । 3. कविराज मुरारीदान (चारण) : राज्य कवि होने के साथ साथ फौजदारी अदालत के अधीक्षक भी थे। 4. आसकरण जोशी (ब्राह्मण) : शहर के कोतवाल । 5. हनवंत चंद (भंडारी) : अपीलीय अदालत के अधीक्षक थे। 6. अमृत लाल मेहता (महाजन) : दीवानी न्यायालय के अधीक्षक। 7. मुंशी हीरा लाल (कायस्थ) : राजमुंशी थे।8. सुखदेव प्रसाद (ब्राह्मण): ज्यूडिशियल सेक्रेटरी . कश्मीरी पंडित थे।9. पंडित जीवानंद (ब्राह्मण): सरदार न्यायालय के उप अधीक्षक10. मुंशी किशोरी लाल (कायस्थ) : पुलिस अधीक्षक । प्रोफ़ेसर दिव्या चेरियन की मर्चेंट्स ऑफ़ वर्च्यू इसी बात की विस्तृत जानकारी सहित पुष्टि करती है ।
4. क्या क्षत्रिय ही समान्त या ज़मींदार थे ?
यह पूरा प्रकरण खेदनीय इसीलिए है क्योंकि भारत में सामंत सिर्फ़ ठाकुर या क्षत्रिय नहीं रहे; जाट, जट्ट सिख, गुज्जर, त्यागी, पठान, कुरैशी, भूमिहार, ब्राह्मण, कायस्थ, मीणा जैसे सामाजिक गुट भी अलग अलग परिवेश और अलग अलग समय पर जमींदार और जागीरदार रहे। ऐसे में सामंतवाद का परिचायक सिर्फ एक ठाकुर को बना देना, वह भी एक चयनित कविता के repeatiton द्वारा, महज़ एक संयोग न होकर एक सोचा समझा राजनैतिक षड्यंत्र है, जिसका स्पष्ट उद्देश्य है ठाकुर को सामंती शोषक का रूपक बनाकर पेश करना।
यदि हम ब्रिटिश पूर्व भारत की बात करें, तो निःसंदेह उत्तर भारत में सबसे बड़ी भूस्वामी जाति क्षत्रिय ही थी, जो एक भिन्न भिन्न सैनिक वंशों का समुदाय रहा है। यह स्वाभाविक भी था क्यूंकि मध्यकाल में जागीरें सैन्य सेवा के बदले प्राप्त होती थीं। किन्तु भारत में सामंत सिर्फ़ ठाकुर या क्षत्रिय नहीं रहे; त्यागी, भूमिहार, ब्राह्मण, कायस्थ, जट सिख जैसे सामाजिक गुट भी अलग अलग परिवेश और अलग अलग समय पर जमींदार और जागीरदार रहे।उत्तर भारत की किसान जातियों में चौधरी और पटेल जैसे सामंती टाइटल इसी का साक्ष्य है। ऐसे में सामंतवाद का परिचायक सिर्फ एक ठाकुर को बना देना, वह भी एक चयनित कविता के दोहराव द्वारा, महज़ एक संयोग न होकर एक सोचा समझा राजनैतिक षड्यंत्र है, जिसका स्पष्ट उद्देश्य है ठाकुर को सामंती शोषक का रूपक बनाकर पेश करना। अपितु ओबीसी राजनीति से लाभान्वित भूस्वामी जातियों के राजनैतिक उदय के बाद, गाँवों में भी क्षत्रियों का इन भूस्वामी जातियों की तुलना में वर्चस्व ख़त्म हुआ।
इन भूस्वामी जातियों के राजनेताओं और ब्राह्मण बनिया बौद्धिक वर्ग के बीच आपसी सामंजस्य का ही परिणाम है कि मिहिरभोज प्रतिहार, पृथ्वीराज चौहान समेत तमाम राजपूत व्यक्तित्वों की पहचान को विवादास्पद बनाया गया।
5. क्या क्षत्रिय अर्थात ठाकुर जातिवाद का सिम्बल हैं?
अपने आलेख में प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद झा क्षत्रियों पर वर्चस्व का आरोप लगाते हुए इस बात अफ़सोस जताते हैं कि क्षत्रिय युवा अपने समाज पर गर्व करते हैं और अपने अधिकारों को लेकर जागरूक हो रहे हो।
प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद झा को यह समझना चाहिए कि न तो उनके ब्राह्मण समाज कि तरह क्षत्रियों का मिडिया में कोई वर्चस्व है और न वे ऐसे किसी वर्चस्व का दुरपयोग कर अन्य समाजों को नीचा दिखाते हैं। उन्हें यह भी समझना चाहिए कि न तो ब्राह्मण एवं बनियों की तरह क्षत्रिय अकादमिया में जातिवाद करने की हैसियत रखते हैं, और न ब्राह्मणों की तरह उन्होंने कोई बड़ी राष्ट्रीय स्तरीय राजनैतिक पार्टी का गठन किया है। उन्हें यह भी समझना चाहिए कि जहां ब्राह्मण, बनिया, कायस्थ, खत्री समाज बॉलीवुड से लेकर अकादमिया तक में स्थापित अपने वर्चस्व का अपने हितों के लिए तो उपयोग करते ही हैं अपितु क्षत्रिय समाज को स्टीरिओटाइप एवं शत्रु प्रचारित करने में लगाते हैं। अपूर्वानंद झा को यह भी ज्ञात होना चाहिए कि जाट , गुज्जर और अहीर जैसी जातियों की अपनी खुदकी जातिगत पार्टियां भी हैं और उनके नेता खुले क्षत्रिय समाज के विरुद्ध जातिय विद्वेष और हिंसा भड़काने का कार्य करते आये हैं जबकि ना तो क्षत्रियों की कोई खुदकी पार्टी है ना क्षत्रिय राजनेता अन्य जातियों के विरुद्ध सार्वजनिक द्वेष फैलाते आये हैं।
यदि इन सभी के बजाये अपूर्वानंद झा को क्षत्रिय समाज इसलिए वर्चस्व वादी लगता है क्योंकि क्षत्रिय अपने इतिहास और वर्तमान को लेकर जागरूक हो रहे हैं , तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है ?
क्षत्रिय भी मानव समाज का ही हिस्सा हैं और जब मानव समाज के हर समुदाय को अपने प्रतीकों एवं अपने इतिहास के प्रति जागरूक होने का अधिकार है, तब इकलौते क्षत्रियों को इससे वंचित करना , क्या नहीं है जातिय नफरत का परिचायक नहीं हैं ? क्षत्रियों को उतना ही अपने इतिहास के प्रति जागरूक होने, उस पर बोलने लिखने एवं अपने समाज के आर्थिक सामाजिक राजनैतिक भविष्य के विषय पर चिंतन करने का अधिकार है। , जितना किसी और को।
मिडिया एवं बौद्धिक क्षेत्रों में प्रत्यक्ष रूप से ब्राह्मण और उसके बाद बनिया वर्चस्व है, जिसका सबसे अच्छा उदहारण प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद झा और रूपा झा द्वारा मनोज झा के समर्थन में लिखना एवं प्लेटफार्म प्रदान करना है। ना केवल मिडिया, अपितु फिल्म जगत और अकादमिया में भी ब्राह्मण बनिया वर्चस्व ही है, तभी तो गत तीस सालों में क्षत्रियों पर तमाम साहित्य इन दो समुदायों के परिपेक्ष से लिखा मिलता है। यही नहीं, हम उस देश और व्यवस्था की बात कर रहे हैं जिस तरह मिडिया हाउसेस ब्राह्मण बनिया हितों को साधते हैं, वहीँ वे नवभूस्वामी जातियों द्वारा गठित राजनैतिक पार्टियों के लिए लॉबिंग भी करती हैं।
ब्राह्मण बौद्धिक वर्ग और इन भूस्वामी जातियों के राजनैतिक नेतृत्व के बीच साँझगाँठ का ही परिणाम है कि कुछ सालों से भिन्न भिन्न राजपूत व्यक्तित्वों की जातिगत पहचान पर विवाद खड़ाकर राजपूतों और अन्य sc st मूल OBC समाजों के रिश्ते खराब किये जा रहे हैं, वो भी उनके जीवित वंशजों द्वारा प्रमाण देने के बाद। यही नहीं, अपितु जिस तरह की शब्दावली ब्राह्मण, बनिया और भूस्वामी OBC के नेता एवं बौद्धिक लोग क्षत्रियों के प्रति करते आये हैं, वह भी सोशल मिडिया पर तो सार्वजनिक है ही बल्कि मेनस्ट्रीम मिडिया में भी क्षत्रियों के विरुद्ध जातीय घृणा फैलाते एकतरफा दुष्प्रचार लगभग हर मिडिया प्लेटफार्म पर मौजूद है। चाहे शेखर गुप्ता का दी प्रिंट जहां ऐसा माहौल बनाया गया मनो भारत में सर्वत्र ठाकुर तानाशाही चल रही है या द स्क्रॉल जहां गिरीश शहाणे (मराठी ब्राह्मण) ने क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के लिए एक बचकाना तथ्यहीन लेख लिखा जिसे द स्क्रॉल ने सालों साल सर्कुलेट किया , या बीबीसी हिंदी पर हरबंस मुखिया के लेख जहां वे लिखते हैं कि ना केवल क्षत्रियों ने 1857 में अंग्रेज़ों का कोई विरोध किया अपितु उनका आधुनिक भारत में भी कोई योगदान नहीं है। या दी वायर पर दो रिसर्च स्कॉलरस द्वारा तोमर राजपूत परिवार में जन्मे स्वतंत्रता सेनानी रामप्रसाद बिस्मिल को ब्राह्मण बतलाकर छपा लेख, वो भी तब जब द हिन्दू पर उनके राजपूत परिवार का इंटरव्यू मौजूद है। क्या यह सभी सुनियोजित जातिवाद के उदहारण नहीं हैं ?
यह सवाल उठता है कि ब्राह्मण बनिया बौद्धिक वर्ग द्वारा ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की अन्य कृतियों – झूठन, बामन, “मैं ब्राह्मण नहीं हूँ” “पच्चीस चेका डेढ सौ” इत्यादि को छोड़ , केवल “ठाकुर का कुआं” कविता का प्रचार प्रसार करना जातिवाद नहीं है ? क्या यह इस बात का संकेत नहीं देता कि भारतीय मीडिया और अकादमिया में कुछ जातियों का विशेष वर्चस्व है? आज जब प्रोफ़ेसर झा के ब्राह्मण समाज का मिडिया में दबदबा है और कई जातियों ,जैसे जाटों और यादवों, की अपनी जातिगत पार्टियां हैं, ऐसे में यह शिकायत करना कि क्षत्रिय युवा केवल एक असीमित गिल्ट में जियें,और अपने समाज को लेकर दुष्प्रचार को चुपचाप सहन करें, कहाँ तक न्यायोचित है ?