“सामंतवाद”: क्षत्रियों के विरुद्ध सामाजिक षड्यंत्र
आम क्षत्रियों को सामंत और क्षत्रिय राजाओं को subaltern बनाने की गजब राजनीति
क्षत्रिय समाज के संदर्भ में भारत के बेईमान बौद्धिक विमर्श को देखते हुए प्रश्न उठता है कि – अप्पर क्लास ब्राह्मण बुद्धिजीवी और अन्य भूस्वामी जातियों के (जाट गुज्जर अहीर मीणा) राजनेता क्यों एक तरफ सामंत काल के चौहान और प्रतिहार राजाओं को अपना प्रमाणित करना चाहते हैं किन्तु वर्तमान युग के आम चौहान या परिहार राजपूत जो मुख्यतः ग्रामीण किसान, मज़दूर एवं मध्यमवर्गीय हैं, उन्हें सामंत सम्बोधित कर कोसना शुरू कर देते हैं ?
सामंत शब्द को अत्याचारी का पर्यायवाची बनाया गया और साथ ही साथ सामंत को राजपूत समाज का पर्यायवाची बना दिया गया।
जिसने कहीं भी शासन किया वो सामंत कहा जाना चाहिए और जो परिभाषा गढ़ी गई उस हिसाब से अत्याचारी कहा जाना चाहिए।लेकिन क्या कभी भी तुर्क ,अफगान , सैय्यद ,मराठा ,जाट ,अहीर ,कुर्मी ,कायस्थ ,बनिया ,खत्री ,ब्राह्मण ,गूजर, सिख इत्यादि समाजों को सामंत कहा गया ?जमींदारियां तो इनकी भी थी पर ये सामंत नही कहे गए ।
दरअसल सामंत शब्द को सिर्फ राजपूतों से जोड़ के और उसे अत्याचारी का पर्यायवाची बना के क्षत्रिय समाज के विरुद्ध सामाजिक ,राजनैतिक घेराबंदी की शुरुवात की गई ।
लक्ष्य था आपका पतन क्षत्रिय युवाओ को उलझाना और उनका पतन करना। यहां न्याय अन्याय ,सही गलत की बात ही नही है ।यहां सिर्फ जातीय घृणा की बात है जिससे पीढ़ी दर पीढ़ी क्षत्रिय समाज के विरुद्ध नैरेटिव बनाकर क्षत्रियों को मुख्यधारा से अलग करने की साजिश चलती रही ।सामंतवाद के अलावा एक और षड्यंत्र शुरू किया गया क्षत्रियों को दूसरो से लड़ाने के लिए और वो था राजपूत समाज के ऐतिहासिक व्यक्तियों को दूसरे समाज से जोड़ना ।यह सब उन्नीसवीं सदी से शुरू हुआ ।
इस दुष्प्रचार का प्रभाव समझिए कि निर्दोष की हत्या कर भी फूलन हीरोइन हो गई और जो मारे गए उनमें जो तीन दूसरे समाज (1 एससी, 1 ओबीसी और 1 मुस्लिम) के थे उनकी पहचान छुपा ली गई। शेष 17 निर्दोष मृतक भी एक विशेष वर्ग दादी ठाकुर या मैना ठाकुर समाज से थे, जिन्हें हिंदू मेव भी कहा जा सकता है।
फूलन के बहाने इन 20 निर्दोष लोगों को दोषी प्रचारित कर उनकी हत्या को जायज ठहरा दिया गया, केवल इसलिए क्योंकि पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल के नेतृत्व में समकालीन हिंदी मीडिया और माला सेन शेखर कपूर की सवर्ण लॉबी ने इन्हें “ठाकुर” प्रचारित किया।
फूलन को हीरोइन ही इस लिए बनाया गया ताकि आपकी हत्या का जश्न मनाया जा सके और उसके बहाने आपको घेरा जा सके ।कुसमा नाइन ने जो फूलन द्वारा किए गए बेहमई हत्याकांड के प्रतिशोध में मल्लाह समाज के व्यक्तियों को मारा, उसे भी विमर्श से गायब कर दिया गया।
जहां ब्राह्मण समेत लठैत जातियों को आपके बच्चों का भविष्य खराब करना हो वहां ये आपके पूरे समाज को सामंत कहकर कोसते हैं किंतु जहां इन्हें आपके समाज का इतिहास चाहिए वहां ये आपके ऐतिहासिक व्यक्तियों पर फर्जी दावे करते हैं। जहां ये सामंतवाद को exclusively क्षत्रिय प्रचारित करते हैं तो वहीं ये राजपूत वंशों पर inclusivism के नाम पर फर्जी जातिगत दावे भी करते हैं।
क्षत्रिय और सामंतवाद का दुष्प्रचार
महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय (1873-1895) के वक्त मारवाड़ राज्य के सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारियों की सूची:
1. सरदार सिंह मेहता (बनिया) : राज्य के दीवान. इनका सालाना वेतन 12000 रुपए था और साथ ही जागीर में दो गांव भी थे जिनकी साल भर की इनकम तकरीबन 4500 रुपए निकलती थी।
2. मुंशी हरदयाल सिंह (कायस्थ) : विभिन्न न्यायालयों के अधीक्षक होने के साथ ही मालानी क्षेत्र के भी हैड थे। इनका सालाना वेतन 13,200 रुपए था। साथ ही दरबार में इन्हे सिंगल ताजीम का दर्जा भी प्राप्त था।
3. कविराज मुरारीदान (चारण) : राज्य कवि होने के साथ साथ फौजदारी अदालत के अधीक्षक भी थे। सिंगल ताजीम का दर्जा प्राप्त था, जागीर में दो गांव मिले हुए थे तथा सालाना वेतन था 8400 रुपए।
4. आसकरण जोशी (ब्राह्मण) : शहर के कोतवाल और किलेदार हुआ करते थे। सिंगल ताजीम, जागीर में दो गांव तथा 3600 रुपए वेतन ।
5. हनवंत चंद (भंडारी) : अपीलीय अदालत के अधीक्षक थे। जागीर में एक गांव तथा 4800 रुपए वेतन।
6. अमृत लाल मेहता (महाजन) : दीवानी न्यायालय के अधीक्षक। जागीर में एक गांव तथा सालाना वेतन 3600 रुपए।
7. मुंशी हीरा लाल (कायस्थ) : राजमुंशी थे।
8. सुखदेव प्रसाद (ब्राह्मण): ज्यूडिशियल सेक्रेटरी . कश्मीरी पंडित थे।
9. पंडित जीवानंद (ब्राह्मण): सरदार न्यायालय के उप अधीक्षक
10. मुंशी किशोरी लाल (कायस्थ) : पुलिस अधीक्षक
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गौरतलब है कि इन 10 सबसे मुख्य अधिकारियों में एक भी क्षत्रिय जाति से नही था। 1857 के बाद राजस्थान में जोरों शोरों से किसान आंदोलन देखने को मिले चाहे वो फिर मेवाड़ (बिजौलिया, बेगू) हो या जयपुर (शेखावाटी)। आमतौर पर इन आंदोलनों का कारण सिर्फ सामंतवाद अत्याचार कह कर वाइटवॉश करने की कोशिश की जाती है जबकि अगर गहराई से देखा जाए तो मुद्दा बेहद जटिल प्रतीत होता है। जब राज्य के सभी ऑफिशियल्स मुख्यतः नॉन राजपूत जातियों से थे तो निश्चित तौर पर उनकी जवाबदेही बनती है लेकिन इसके बावजूद 1947 के बाद लिखे गए प्रोपेगेंडा लिटरेचर में इन अधिकारियों को दोषी ठहराना तो दूर इनका नाम तक नहीं लिया जाता जिससे यह लगे मानो सारा प्रशासन दरअसल एक ऑटोक्रेटिक राजपूत रेजीम था जिसमे दूसरे वर्गों की हिस्सेदारी ना के बराबर थी और तानाशाही अपने चरम पर थी।
इन जातियों के बाद जहां राजपूत सैन्य नेतृत्व आता था, तो वहीँ लोकल प्रशासन में प्रशासन में उन जातियों (जाट, अहीर, कुर्मी,पटेल) का दबदबा था जिन्हें राजाओं से पाटीदार, चौधरी, इनामदार और मिर्धा की उपाधि मिलती थी।
देखने योग्य यह भी बात है कि जिन अधिकारियों का ऊपर वर्णन किया गया है उन्ही की जाति के लोगों ने बढ़ चढ़कर प्रजामंडल आंदोलन का नेतृत्व भी किया, चाहे जयनारायण व्यास (ब्राह्मण) हो या जमनालाल बजाज (बनिया) । बड़ी आयरोनीकल बात है जहां एक समूह सत्तापक्ष की मलाई खा रहा था वहीं उसी जाति का दूसरा समूह आज़ादी के बाद अपनी कम्युनिटी का प्रभुत्व बनाए रखने के लिए लोकतंत्र, लोकतंत्र का आवरण ओढ़ क्षत्रियों के विरुद्ध जातिये लामबंदी कर रहा था।
सवाल सीधा है, जब तथाकथित अत्याचारों की बात आती है तब इस नॉन राजपूत सवर्ण वर्ग के कारनामों को क्यों नजरंदाज कर दिया जाता है?
उस काल में एक आम राजपूत की स्थिति बेहद दयनीय हुआ करती थी और अगर कुछ बड़े ठिकानेदारों को छोड़ दिया जाए तो उसकी हालत एक सामान्य किसान से कुछ थोड़ी ही ठीक थी। बावजूद इसके आज उसी आम राजपूत को सामंतवाद के झूठे और संगीन आरोप झेलने पड़ते हैं जबकि अगर हल्का भी गहन अध्ययन किया जाए तो 99% राजपूतों का इसमें कोई रोल नहीं था।
सामंतवाद असल में और कुछ नहीं बल्कि कांग्रेस और प्रजा मंडल की आड़ में जाट राजनेताओं और ब्राह्मण बनिया बौद्धिक वर्ग द्वारा क्षत्रियों के विरुद्ध उसी प्रकार का पीढ़ी दर पीढ़ी चलता सामाजिक षड्यंत्र है , जिस प्रकार कभी जर्मनी में हिटलर और गोयबेल्स द्वारा यहूदियों के विरुद्ध सामाजिक दुष्प्रचार चलता था । फर्क केवल इतना है कि नाज़ी प्रोपगेंडा ने एक ही पीढ़ी में सैंकड़ों यहूदियों का नरसंहार किया इसलिए वह प्रत्यक्ष है जबकि इस नेक्सस ने पीढ़ी दर पीढ़ी धीरे धीरे क्षत्रियों की सामाजिक, राजनैतिक और मानवीय अधिकारों की ह्त्या की है इसलिए यह सूक्ष्म है।
हम यह नहीं कहते कि 20 वि सदी में हुए किसान आन्दोलनों में ब्राह्मण बनिया दरबारी अधिकारीयों के अलावा सामंतों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी, किन्तु कुछ उदाहरणों को generalize करके सभी क्षत्रिय राजाओं और क्षत्रिय समाज को ही शत्रु बनाना, वो भी 80 साल बाद इलेक्शन के समय, केवल सुनियोजित असामाजिक षड्यंत्र है। इन्हीं वर्गों के बुद्धिजीवियों से यह भी पूछना अनिवार्य है कि उन्होंने राजस्थान के एक बड़े किसान आंदोलन , निमूचना किसान आंदोलन, को नरेटिव से विलुप्त क्यों किया ? क्योंकि इसमें किसान क्षत्रिय समाज से थे, जो कि एंटी – राजपूत नरेटिव में फिट नहीं बैठता। इसी तरह धौलपुर का तसीमो कांड, जहां किसान क्षत्रिय थे और राजा जाट, उसे भी इसी कारण दरकिनार किया जाता है।
राजपूत यदि अत्याचारी ही थे, तो ब्राह्मणवादी प्रजा मंडल से पहले विरोध क्यों नहीं ?
राजपूत clans ने अपनी विस्तार नीतियों के तहत स्थानीय राजपूत वंशों को तो हराकर अपने अधीन किया ही, अपितु उन राजपूत वंशों के सहयोगी रही लोकल घुमन्तु और आदवासी ट्राइब को ज़मीनें देकर कृषक बनाया। चाहे जांगल में जाट हो , ढूंढाढ में मीणा हो, हाड़ौती में मीणा भील और गोड़वाड़ मेवाड़ में मेड़ एवं अलग अलग आदिवासी समुदाय।
ढूंढाड़ में कछवाहों के वर्चस्व से पूर्व दौसा में निकुम्भ, खंडेला में चौहान राजपूतों और अलवर में बड़गुर्जर राजपूतों का शासन था। अपने शिलालेखों में इन्हीं बड़गुर्जर राजपूतों ने मीणाओ को अपना सामंत लिखा है – आमेर के सूसावत मीणा इसका उदहारण है । अपने वर्चस्व के बाद कछवाहों ने बड़गुजर को हरयाणा और और निकुम्भ राजपूतों को हराकर रोहिलखण्ड की और ढकेला, तो वहीँ उन्होंने उनके पूर्व सामंतों को हराकर अपना सामंत बनाया। कछवाहा प्रशासन में मीणाओं में दो वर्ग थे – जमींदार और चौकीदार। इनमें जमींदार मीणा कछवाहा प्रशासन में प्रशासनिक अधिकारी होते थे, विशेषकर राज्य-कोष की ज़िम्मेदारी इन्हीं की होती थी।
जाट जैसी जाति जो मारवाड़ में नहीं पाई जाती थी उसे व्यापक स्तर पर उनके मूलनिवास से लाकर आज के नागौर में बसाया गया जहां से फिर वे आगे पश्चिम तक फेल गए। सबोर्डिनेशन के पश्चात ये जातियां शांतिपूर्वक अपने अपने क्षेत्र में राजपूतों के संरक्षण में जीवन यापन करती रही, कारण था क्षत्रिय प्रशासन की चौधरियत और पाटीदारी देने की पॉलिसी। मुख्यतः इन जातियों के सरदार स्वयं भी राजपूत राजाओं को अपनी बेटियां देकर रिश्तेदारी स्थापित करते थे और ज़मीनों की मलकियत प्राप्त करते थे।
उदहारण : जाट इतिहासकार बी एस निज्जर अपनी किताब में कुछ जाट वंशों का उद्भव राजपूत वंशों से गिनवाते हैं , जिन्हें वे कसबगोत्री जाट कहते हैं। हालांकि क्षत्रिय दस्तावेजों में इनका क्षत्रियों से उद्गम के प्रमाण नहीं किन्तु जाट चौधरियो और क्षत्रिय राजाओं के बीच वैवाहिक सम्बन्ध सभी ख्यात एवं वात में दर्ज है।
जहां मीणाओं का उद्भव मत्स्य जनपद से होना निर्विवादित है, वहीँ जाटों का उद्गम सिंध प्रांत में होना एक स्थापित मत है। 600 सालों में जाट सिंध से पलायन करते ऊंट पालक से मिर्धा अथवा चौधरी के रूप में परिवर्तित हुए । 1947 में मारवाड़ रियासत के आखिरी DIG बलदेवराम मिर्धा थे, जिनका परिवार तीन सौ सालों से जोधपुर रियासत का सामंत था। आजकल के जाट राजनेता इन्हें किसानों का सबसे बड़ा और विद्रोही नेता प्रचारित करते हैं, किन्तु वे भूल जाते हैं कि DIG साहब फरवरी 1947 तक पुलिस प्रशासन में ही थे और मारवाड़ रियासत ने ट्रीटी ऑफ़ अक्सेशन 11 अगस्त 1947 में साइन किया। DIG साहब ने अपने कार्यकाल में जाट हॉस्टलों और बोर्डिंग के लिए जोधपुर दरबार से कई डोनेशन और सरकारी ज़मीनों की स्वीकृति करवाई थी, जिसके कागज़ी साक्ष्य आज भी उपलब्ध हैं । निः संदेह पुराने शासन को जाता देख मिर्धा ने पहले मारवाड़ किसान सभा बनाई , फिर उसमें गैर जाट किसान जातियों के प्रभुत्व को देखते उन्होंने इस सभा को छोड़ मारवाड़ जाट सभा बनाई।
यदि राजपूत राजा जातिवादी थे तो क्यों दोनों भरतपुर सिनसिनवार जाट राजवंश और रेवाड़ी का आफरिया अहीर राजवंश खुदको करौली के यदुवंशी क्षत्रिय राजवंश से स्वयं को जोड़ते आए ? यही बात गुज्जरों पर भी लागू होती है। 1947 में गुज्जरों की दो रियासते थीं, जिनका उद्भव 18वी सदी में हुआ था, जिनमें से एक समथर पन्ना के बुंदेल राजपूत राजवंश द्वारा नुन्ने शाह खटाना को दी गई जागीर थी।
इतिहास दर्शाता है कि दमनकारी राजनीति एवं tyrannical policies sustainable नहीं रहती है। यही कारण है कि दिल्ली सल्तनत में किसी एक वंश का लंबा राज नहीं रहा।
मुगलों ,खासकर अकबर, ने इसे पहचाना और हिंदू राजपूत राजाओं से संधियां की ताकि राजकार्य सुचारू चलता रहे।
पर औरंगजेब के meltdown और क्रूर आउटलुक की वजह से विद्रोह होना शुरू हुए। आगरा के आस पास की जाट जाति जो पूरी तरह खेतिहर थी उसने विद्रोह का बिगुल बजाया।
सिख धर्म जो की harmless peasants का एक समुदाय था वो तक मार्शल बन बैठे।
अब सवाल यह उठता है जब पूरे देश में इतनी anarchy फैली हुई थी, चारो तरफ mayhem था, अराजकता चरम पर थी तो राजस्थान में राजपूतों के खिलाफ रिबेलियन क्यों नहीं हुए।
18वि सदी में राजस्थान में मराठों का आतंक छाया हुआ था, राजपूत राज्य निर्बल हो चुके थे लेकिन इसके बावजूद भी अन्य जातियों ने विद्रोह का सोचा तक नहीं।
अगर राजपूत इतने ही अत्याचारी थे तो बीसवीं सदी से पहले हमें उनके खिलाफ एक भी संगठित सबाल्टर्न बगावत देखने को क्यों नहीं मिलती? सवाल यह भी उठता है कि यदि राजपूत केवल अत्याचारी ही थे, तो आज की तथाकथित किसान (जाट, गुज्जर, अहीर) एवं कुछ दलित जातियां (जैसे भर, पासी और मेघवाल) राजपूत राजाओं पर जातिगत दावे क्यों करती हैं।
इलेक्शन आते ही ब्राह्मण और भूस्वामी (जाट ,गूजर, अहीर, मीणा) जातियों का बौद्धिक नेतृत्व स्वयं को किसान और क्षत्रियों को सामंत बोलकर राजनीति शुरू कर देती हैं – ये वही वर्ग है जो सामन्तकाल के क्षत्रिय राजाओं पर भी झूठे दावे करती आईं हैं मगर कोई आम क्षत्रिय अपने जीवन में आगे न बढ़ जाए उसकी चिंता में इनके नेता ब्राह्मण बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर “सामंत सामंत” चिल्लाना शुरू कर देती हैं। नहीं तो क्या इस वर्ग को यह ज्ञात नहीं कि कास्ट और क्लास एक एंटिटी नहीं है? क्या उत्तर मध्यकाल में बहुसंख्यक राजपूत किसान नहीं हैं? जितने जाट अहीर चौधरी, मिर्धा, राव, इनामदार टाइटल लगाते थे वे भी उसी प्रकार सामंत थे जिस प्रकार कोई राजपूत ठिकानेदार या जागीरदार था। इनका पाखंड पूर्ण रूप से एक्सपोज तब हो जाता है जब दूसरे ही क्षण मार्शियल इतिहास गढ़ने की अभिलाषा में ये पूर्व मध्यकालीन राजपूत राजाओं पर फर्जी दावे कर जातिय टकराव का माहौल बनाते हैं।
गौरतलब है कि झूठ पर आधारित इनकी राजनीति नाज़ी प्रोपेगेंडा मंत्री जोसेफ गोयबल्स से ही प्रेरित है – जहां एक झूठ को ज़ोर शोर बार बार प्रचार कर स्थापित करने पर ज़ोर दिया गया है।।क्या ब्राह्मण, जाट ,अहीर बुद्धिजीवी यह समझते हैं कि क्षत्रिय उनके सामंती इतिहास पर नहीं लिख सकते? ब्राह्मणों ने क्षत्रियों के अलावा हूणों, अरबों, तुर्कों, अफ़ग़ानों, मुगलों और अंग्रेज़ों सभी से बिना लड़े फायदे, ज़मीन और पद हासिल किए – इसी ब्राह्मण निति के कारण आज भारत के सभी संस्थानों और संसाधनों पर उनका वर्चस्व है। इसी तरह पूर्व मध्यकाल में अहीर, जाट , गुजर, तो घुमन्तु जातियां थीं , जिन्हें उत्तर मुग़ल काल तक चौधरियत ही क्षत्रियों और मुगलों द्वारा प्राप्त हुई। यदि ये जोधा अकबर का नाम लेकर आपको बदनाम करते हैं, तो आप भी निर्भीक होकर बताइए कि कैसे इन्होने मुगल और क्षत्रिय राजाओं से बेटियों का विवाह कर एवं सम्बन्ध बनाकर ज़मींदारियाँ और चौधरियत प्राप्त की थीं , जिसके प्रमाण मध्य कालीन दस्तावेजों से लेकर उन्हीं के मौखिक इतिहास में मौजूद है।। यह भी बताएं कि जमींदार जातियां होने के बावजूद इन्होंने कैसे झूठ और प्रपंच द्वारा आरक्षण प्राप्त किया और भूमिहीन मूल ओबीसी एवं मूल एसटी को संवैधानिक लाभ से दरकिनार किया।
ये सभी लठैत जातियां भले ही क्षत्रियों के वंशों पर झूठे दावे करतीं हों, किंतु इनका राजनैतिक डीएनए तो ब्राह्मणवाद से ही निकला है – जहां ब्राह्मणों की ही तरह अपने जातिय वर्चस्व को बरकरार रखने के लिए इनका बौद्धिक वर्ग मीडिया और आकदमिया में बने अपने वर्चस्व के माध्यम से दुष्प्रचार करता आया है, दूसरों का इतिहास विकृत कर जातिय नफ़रत फैलाता आया है, बिना सोचे परखे कि उनके भिन्न भिन्न नरेटिव में कितना विरोधाभास है।। यहां इन समाजों के संवेदनशील लोगों को विचार करना चाहिए कि ऐसी राजनीति से उनके समाजों को क्षणिक फायदा तो मिल जाएगा किन्तु यह सुनियोजित जातिय विद्वेष सर्वसमाज को कमज़ोर करेगा। ।