“Origin of Rajputs”: A Political Exercise


1. Why The Obsession? 

 यह सर्वविदित है कि लठैत जातियों और वामपंथ का आवरण ओढ़े ब्राह्मणवादी बौद्धिक वर्ग ने सभी क्षत्रियों को सामंत और सामंतवाद को अत्याचारी का पर्याय बताकर उनके विरुद्ध जातिय ध्रुवीकरण की राजनीति शुरू की, जिससे क्षत्रियों के मानवीय एवं लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन हुआ। वहीं इसी वर्ग ने एक और षड्यंत्र शुरू किया क्षत्रियों को दूसरे समाजों से लड़ाने के लिए और वो था उनके ऐतिहासिक व्यक्तियों की सामुदायिक पहचान को विवादित बनाना एवं क्षत्रिय सामुदायिक आइडेंटिटी को ही विवादास्पद बना देना। इस सभी की जड़ 19वी सदी में जेम्स टॉड की Origin of Rajputs और आर्य समाज के क्षत्रियकरण की राजनीति में ही है।

Origin of Rajputs अर्थात राजपूतों की उत्पत्ति विषय पर असामाजिक तत्वों द्वारा सोशल मीडिया एवम किताबों में अनेकों तथ्यहीन भ्रामक नैरेटिव फैलाए मिलते हैं।

जैसे जेएनयू के पूर्व रेक्टर  चौधरी हरबंस मुखिया जो राजपूतों के सैन्य, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं आधुनिक योगदान को नकारते हैं एवं उस पर तथ्यात्मक चर्चा से बचते हैं, किंतु राजपूतों की उत्पत्ति पर विमर्श के बहाने अपनी मनगढ़ंत थ्योरी फैलाने से नहीं रुकते।इसलिए हमारे पाठ्यक्रम में क्षत्रियों के सैन्य एवं सांस्कृतिक योगदान पर कुछ हो न हो, किंतु UPSC के सिलेबस तक में Origin of Rajputs  पर एक पूरा चैप्टर ज़रूर मिलता है , जहां भिन्न भिन्न तथ्यहीन भ्रांतियों को थ्योरी की संज्ञा देकर प्रचार किया जाता है।

यह विचारणीय है कि ना ब्राह्मण, ना वैश्य,ना कायस्थ, खत्री ,ना मराठा समुदाय की उत्पत्ति को लेकर ऐसी तथ्यहीन अवधारणाएं सुनियोजित तरीके से प्रचारित की जाती हैं । ना ऐसे किसी समाज की उत्पत्ति पर हवा हवाई दुष्प्रचार को NCERT एवं UPSC के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है।

फिर Origin of Rajputs पर इतना obsession क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि यह विषय अकादमिक से ज़्यादा एक राजनैतिक अभ्यास है । क्षत्रिय वंशों ने भारत पर लंबा समय शासन किया, अनेकों शहर, कस्बे बसाए; इसी तरह क्षत्रियों का सैन्य और सांस्कृतिक योगदान भी काफी है। अतः हर तानाशाह वर्ग  क्षत्रियों के योगदान को नकारता तो है ही किंतु ironically उन्हें appropriate करना भी ज़रूरी समझता है।

इस विडंबना को थोड़ा विस्तार से समझते हैं।

2. Colonial Theory & Their Reasons

इस बहस की शुरुआत 19वी सदी में ब्रिटिश कोलोनियल लेखक  जेम्स टॉड और विंसेंट स्मिथ ने की जिन्होंने सर्वप्रथम राजपूतों और क्षत्रियों में भेद करते हुए राजपूतों को हूण और शक प्रचारित करना शुरू किया।  राजपूतों को बाहरी प्रचारित कर अंग्रेज़ अपने शासन को आम जन में स्वीकृति दिलवाना चाहते थे। इसी षड्यंत्रवश सम्राट हर्ष के उपरांत 7वी सदी से 12वी सदी के काल को अलग से राजपूत एरा का नाम दिया गया ।

यही वो दौड़ था, जब आर्य समाज ने कृषक और घुमंतू जातियों में क्षत्रियकरण का भ्रमित साहित्य फैलाना शुरू किया। उदाहरण: सब्जी विक्रेता काछी समाज को कच्छवाह राजपूतों से जोड़ उन्हें “कुशवाहा” लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जाने लगा, अहीर समाज को यदुवंशी राजपूतों के इतिहास पर दावा करने हेतु “यादव” उपनाम अपनाने, तेली समाज को “राठौड़”, नमक उत्पादक नोनिया समाज को “चौहान”, पासी समाज को अपने आस पास बसे बैस वंश के इतिहास पर दावे करने के लिए, जाटों को तोमरों और गुज्जरों को प्रतिहारो पर दावे करने के लिए आर्य समाजियों ने ही सर्वप्रथम उकसाना शुरू किया था।

अंग्रेज़ों के जाने के बाद भी इस politically motivated थ्योरी को पंडित भंडारकर,  आरसी माजुमदार, पंडित डी एन झा जैसे इतिहासकारों ने 50 साल तक अकादमिया में बरकरार रखा। ऐसा इसलिए क्योंकि 1947 के तुरंत बाद जिस वर्ग का भारतीय व्यवस्था पर वर्चस्व स्थापित हुआ, उसका उद्देश्य राजपूतों में स्वतंत्र राजनैतिक चेतना को रोकना और उन्हें एक सीमित विचारधारा में कैद करना रहा। जिस कारण राजपूतों को उनके बौद्धकालीन इतिहास से अलग करना उनके लिए अतिअनिवार्य था।

किन्तु इस कोलोनियल थ्योरी के समर्थक ना केवल आज तक इस मत के समर्थन में  कोई साक्ष्य, सिक्के, अभिलेख जुटा पाए अपितु वे इन निम्नलिखित सवालों से भी बचते आए।  यदि वर्तमान राजपूत क्षत्रिय नहीं हैं, तो प्राचीन क्षत्रिय कहाँ गायब हो गए?  ऐसा क्या हुआ कि देश में ब्राह्मण , बनिया, भील, आदिवासी सभी हज़ारों सालों से अब तक बचे रहे किन्तु क्षत्रिय अचानक 7वि सदी में गायब हो गए ? उस समय सभी भारतीय समुदायों में सबसे शक्तिशाली क्षत्रिये थे, जो ना केवल स्वयं योद्धा थे अपितु उनके पास मिलिट्री एपरेटस भी था,फिर वे कैसे बिना लड़े गायब हो गए? यदि राजपूत असल में हूण और शक हैं, तो उनकी बसावट प्राचीन क्षत्रियों कि ही तरह विस्तृत कैसे ? मान भी लें कि राजपूत हूण और शक हैं, तो वे इतने कम समय में उत्तरी भारत के अलग  अलग राज्यों में फैलकर शासक कैसे बन गए ? यदि राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के वंशज ना होकर हूण और शक हैं, तो इनके वंशों के नाम प्राकृत कैसे? क्या कोई साक्ष्य है कि हूणों और शकों ने प्राचीन क्षत्रियों को खदेड़ दिया, विस्थापित कर दिया या उन्हें शूद्र बना दिया ?  क्यों समकालीन बौद्ध, जैन और ब्राह्मण स्त्रोत इस संभवतः शासकीय बदलाव पर चुप हैं ? यदि राजपूत और क्षत्रिय दोनों भिन्न भिन्न समूह हैं तो 17वी सदी तक यही वंश स्वयं को क्षत्रिय क्यों लिख रहे थे ? राजपूत शब्द का प्रचलन तो 17वि सदी के बाद हुआ ।

3. Brahminical Parshuram Theory

इसी तर्ज पर क्षत्रियों को नीचा दिखाने के लिए कई ब्राह्मणवादीयों ने अपने साहित्य में यह दुष्प्रचार शुरू किया  कि परशुरामजी ने सभी पौराणिक क्षत्रियों का 21 बार नरसंहार कर दिया था, और वर्तमान राजपूत जाति ब्राह्मण पुरुषों एवं विधवा क्षत्रिय स्त्रियों के नियोग से उत्पन्न हुई है।

किन्तु ऐसा कहने वाले यह नहीं बताते कि यह 21 बार क्षत्रिय नरसंहार कब हुए थे? हर नरसंहार के बाद क्षत्रिय पुनः कैसे उत्पन्न हो जाते थे? परशुराम जी किस कालखंड में थे और उनके अस्तित्व से जुड़े ऐतिहासिक साक्ष्य कहाँ मिलते हैं? क्यों ऐसे किसी क्षत्रिय नरसंहार का वर्णन श्रमण और बौद्ध जैन साहित्य  में नहीं मिलता? क्यों ब्राह्मणों के अलावा किसी ने भी ऐसे नरसंहार का वर्णन नहीं किया है ? जब क्षत्रियों और हूणों, शकों, ग्रीक्स के युद्धों के साक्ष्य हैं ,फिर परशुरामजी और क्षत्रियों के बीच हुए 21 युद्धों के कोई साक्ष्य क्यों नहीं हैं ?मौर्य , गुप्त, पुष्यभूति जैसे साम्राज्य बनाने वाले क्षत्रिय वंश केवल परशुरामजी और कुछ ब्राह्मणों द्वारा कैसे हार गए।  यदि परशुराम जी इतने ही बलवान थे, तो हूण, शक,  अरब एवं  तुर्क हमलों के समय क्यों नहीं लड़े?

क्या साक्ष्य है कि ऐसे कोई नरसंहार हुए भी थे ? यदि नहीं हुए थे, तो क्षत्रिय महिलाओं और ब्राह्मण पुरुषों से उत्पन्न तथ्यहीन मत का basis ही समाप्त हो जाता है।

इस मत को हवा देने वाले अक्सर early medieval क्षत्रिय व्यक्तित्वों के लिए उपयोग हुए विप्र  शब्द का  उल्लेख करते हैं , जबकि वे भूल जाते हैं कि विप्र का अर्थ सिर्फ ब्राह्मण नहीं होता बल्कि ग्यानी  और सिद्ध पुरुष भी होता है।  किन्तु इस मत के समर्थक यह नहीं बताते कि जिन शिलालेखों में इन वंशों ने खुदको एक या दो बार विप्र लिखा, उन्हीं शिलालेखों में उन्होंहने स्वयं को अनेको बार क्षत्रिय भी लिखा।  इसके अतिरिक्त यह भी गौरतलब है कि जहां क्षत्रियों कि बसावट प्राचीन एवं आधुनिक काल में गणतांत्रिक वंश आधारित  रही है, वहीँ ब्राह्मणों की बसावट का कोई गणतांत्रिक रूप नहीं रहा है।

4. Post-Mandal Feudal OBC politics

किंतु 1990 में मंडल आरक्षज लागू होने के उपरांत लठैत भूस्वामी जातियों का लोकल राजनैतिक प्रभुत्व स्थापित हुआ और यह नैरेटिव बदला। जहां ये लठैत जातियां मूल ओबीसी के आरक्षण पर अधिकार स्थापित करने के लिए स्वयं को क्षत्रियों द्वारा शोषित शुद्र प्रचारित करती, तो वहीं स्वयं क्षत्रिय बनने हेतु अलग अलग राजपूत राजवंशों और राजाओं पर फर्जी दावे भी करतीं।

इसलिए आप इन लठैत जातियों के दावों में काफी विरोधाभास भी देखते हैं।  जहां इन जातियों ने प्राथमिक लिस्ट में OBC और ST  आरक्षण नहीं मिलने पर सार्वजनिक तोड़फोड़ और मुरथल दंगों जैसे हतकन्डे अपनाएं तो वहीँ आज भी ये जातियां क्षत्रिय इतिहास पर अपने फर्जी दावों को स्थापित करने के लिए भी हिंसा और सांप्रदायिक राजनीति का खुलकर उपयोग करती हैं।  जहां इन लठैत समुदायों को OBC आरक्षण अपने राजनैतिक वर्चस्ववाद को स्थापित करने के लिए चाहिए तो वहीँ इन्हें राजपूत या क्षत्रियों वंशों का इतिहास खुदके लिए  एक मार्शियल इतिहास गढ़ने के लिए चाहिए।

हालांकि यह सत्य है कि इन जातियों में क्षत्रिय इतिहास की लालसा आर्य समाज ने भरना शुरू किया था, किन्तु मंडल राजनीति के उदय तक ये लठैत समुदाय कभी भी क्षत्रिय राजाओं और वंशों पर दावे नहीं करते थे।  अंग्रेजी काल में ही इन लठैत जातियों ने राजपूत वंश और उपनाम लगाने शुरू किए, जिसका तब ये  यह तर्क देती थीं कि इनकी उत्पत्ति फलाना फलाना राजपूत वंश से हुई थी।

ओबीसी आरक्षण का फायदा उठाने वाली इन्हीं जमींदार लठैत जातियों के राजनैतिक तुष्टिकरण हेतु समाजशास्त्री  BNS Yadava और पंडित बीडी चट्टोपाध्याय ने यह दावा शुरू किया कि राजपूत पहचान 16वी सदी में आई और उससे पूर्व के सभी राजपूत असल में ब्राह्मण, जाट, गूजर , अहीर ही थे।आजकल पृथ्वीराज चौहान, मिहिरभोज प्रतिहार, राणा पूंजा सोलंकी, अनंगपाल तोमर, बाबा रामदेव तोमर जैसे राजपूत व्यक्तित्वों को लेकर बढ़ता Anti-Rajput  जातिय टकराव और सामाजिक तनाव इसी आकादमिक narrative का दुष्परिणाम है।

इस नरेटिव को गढ़ने और उसका प्रचार करने वालों की बौद्धिक बेईमानी अंग्रेज़ी कोलोनिअल स्पेकुलेशन्स से भी अधिक है, क्योंकि अंग्रेज़ों की तरह यह जानकारी के अभाव में तथ्यहीन थ्योरी नहीं गढ़  रहे अपितु ये 7 वि से 16 वि सदी के रिकॉर्डेड इतिहास और सभी विरोधाभासी प्रमाणों  के बावजूद  ऐसी थ्योरियों का प्रमोशन कर रहे हैं जिससे जातिए टकराव  बढ़े।इनसे यह पूछना अनिवार्य है कि इन लठैत जातियों ने राजपूत उपनाम कब लगाने शुरू किए एवं इनके दावे किस तरह समय के साथ बदलते रहे।  इनसे यह भी पूछना अनिवार्य है कि जब चौहान वंश, तोमर वंश, यदुवंश और जोहिया वंश 10 वि सदी में आपसी सम्बन्ध बना रहे थे तब क्या वे ऐसा जाट, गूजर, अहीर, कुर्मी, ब्राह्मण कि हैसियत से कर रहे थे ? क्या महाराणा सांगा ने लोदी और बाबर के विरुद्ध राजपूतों का नहीं बल्कि ब्राह्मणों, जाटों, गुज्जरों, अहीरों का संघ तैयार किया था ?  अक्सर इसके पीछे इनका यही तर्क होता है कि राजपूत शब्द 17 वि सदी से पूर्व प्रचलित नहीं था, जिस पर यह पूछा जा सकता है कि क्या किसी राजपूत राजा अथवा वंश ने स्वयं को किसी शिलालेख में ब्राह्मण, जाट, गूजर, अहीर घोषित किया ? नहीं।  जबकि इसी तर्क (line of reasoning) का अनुसरण करें, तो इस समाज की असली पहचान क्षत्रिय स्वतः स्थापित होती है। और यह तथ्य इस आर्य समाजी मिथक का भी खंडन करता है कि क्षत्रिय कोई वर्ण जिसकी सदस्यता  ब्राह्मण निर्धारित करते हैं ।

5. इन भ्रांतियों का प्रचार करता मिडिया और अकादमिया

आजकल हम देखते हैं कि ब्राह्मण या लठैत जातियों से आने वाले बुद्धिजीवी टीवी, साहित्य एवं आकादमिया के ज़रिये बिना क्षत्रियों की अनुमति के और बिना उनसे संवाद स्थापित किए क्षत्रियों  पर उन्हीं के उद्भव को लेकर  मनमानी के नरेटिव थोपते हैं। जैसे पंडित अवध ओझा पंडित ब्रजेश मिश्रा के भारत समाचार पर यह दुष्प्रचार करता है कि राजपूत और क्षत्रिय अलग अलग हैं, या ISKON का अमोघ लीला दास जो क्षत्रियों को ब्राह्मणों का नियोगपुत्र घोषित करता है, या रुचिका शर्मा जो सौरभ द्विवेदी के द लल्लनटॉप पर प्रतिहार, चौहान और परमार राजपूतों कि पहचान को लेकर तथ्यहीन विवादास्पद बयान देती है ;  गुज्जर महासभा का आचार्य वीरेंदर विक्रम जो नैशनल टीवी पर सभी राजपूतों को गुज्जरों का वंशज घोषित करता है।

आजकल इन्होंने Dirk H Kollf , Cynthia Talbot और Richard Eaton जैसे पश्चिमी इतिहासकारों के ज़रिये Oxford और Cambridge में छपी किताबों में  क्षत्रियों की पहचान और उत्पत्ति को लेकर अपना नैरेटिव प्रचारित करवाया है ।

यह कुछ उदहारण हैं जो इस विषय की गंभीरता पर प्रकाश डालते हैं।

आज इन सभी दुष्प्रचार का तथ्यात्मक खंडन तो ज़रूरी है ही बल्कि ऐसे सुनियोजित दुष्प्रचार करने वालों पर कानूनी कार्रवाई भी होनी चाहिए क्योंकि एक समुदाय को लेकर भ्रांतियां तो फैला ही रहे हैं बल्कि अलग अलग समुदायों को आपस में  लड़वा भी रहे हैं।

 

 


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