गुर्जरात्रा का नामकरण और “गुर्जर” जाति का मिथक


एतिहासिक प्रमाणों की बात करें तो उत्तर भारत में मिलने वाली गूजर नाम की जाति का किसी साहित्य या शिलालेख मे पहला उल्लेख 16वी सदी के बाबरनामा मे मिलता है. जबकि गुर्जरात्रा नाम के प्रदेश का उल्लेख गुप्तोत्तर काल से ही शुरू हो जाता है. लगभग हजार साल के काल मे गुर्जर प्रदेश का स्थान सूचक के रूप में अनेकों ग्रंथों और शिलालेखों में उल्लेख मिलता है लेकिन एक बार भी किसी गुर्जर या गूजर या गुज्जर नाम की जनजाति का उल्लेख नहीं मिलत।

गुर्जर देश के ही निवासी उद्योतान सूरी द्वारा आठवीं सदी मे रचित ग्रन्थ ‘कुवल्यमाला कहा’ मे पहली बार प्राचीन गुर्जर देश के समाज, भूगोल और राजनीति का विस्तृत वर्णन किया गया है । इसमें गुर्जर देश मे निवास करने वाले क्षत्रिय वंशो के अलावा वहां के ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र जातियों का वर्णन है। इसके अलावा इसमें विभिन्न चरवाहा एवं जंगली जातियों जैसे भील, किरात, सबर, अभीर, गोंड, पुलिंद आदी का वर्णन है लेकिन गुर्जर नाम की किसी पशुपालक जाति या नस्ल का कोई उल्लेख नहीं है । ये बहुत बड़ी बात है कि इस ग्रन्थ का लेखक जो गुर्जर देश का निवासी था उसे दूर दराज के प्रदेशो मे रहने वाली जातियों का ज्ञान था लेकिन किसी गुर्जर नाम की जाति का नहीं। 

इसके अलावा भरतमुनि के ‘नाट्य शास्त्र’ जिसकी रचना गुप्तोत्तर काल में मानी जाती है. इस ग्रंथ में अनेकों व्यवसायिक वर्गों एवं जातियों का वर्णन किया गया है जिसमें शिकारी, बकरी व्यापारी, घास बेचने वालों से लेकर शबर और अभीर जैसी पशुपालक जातियों, हिमालय में रहने वाले किरात, जंगलों में रहने वाले वनाचर और पुलिंद, चांडाल, शक, यवन, पहलव आदि शामिल हैं. इसमें सभी जाति की महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रो का सूक्ष्म वर्णन है. ऐसे विस्तृत ग्रंथ में भी गुर्जर नाम की जाति का कोई उल्लेख नहीं है । 

बाणभट्ट द्वारा रचित ‘हर्षचरित’ मे गुर्जर देश का वर्णन है, जाति व्यवस्था और विभिन्न जनजातियों का विस्तृत वर्णन है लेकिन गुर्जर नाम की किसी जाति का कोई उल्लेख नहीं ।  कथित गुर्जर जाति को हूणो के साथ आया या उनका वंशज बताया जाता है। इस ग्रन्थ में हूणों के साथ वर्धन वंश की भिड़ंत का भी अनेको बार उल्लेख हैं. एक जगह एक ही वाक्य में हूणों के साथ सिंधु, मालव, गुर्जर प्रदेशो के शासको को पराजित करने का उल्लेख भी है । इससे हूणों का गुर्जर प्रदेश से कोई संबंध ना होना ही पुष्ट होता है।

इसी तरह छठी-सातवी सदी मे दंडी द्वारा रचित ‘दशकुमार चरित्र’ मे जिसमे दस राजकुमार देश के दस भिन्न क्षेत्रो की यात्रा करते हैं, देश के विभिन्न क्षेत्रो, उनके भूगोल, समाज, संस्कृति, जाति व्यवस्था एवं विभिन्न जनजातियों का विस्तृत उल्लेख है लेकिन पशुपालक गुर्जरों का नहीं. इस ग्रन्थ में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के अलावा भील, किरात, पुलिंद, शबर, अभीर, शक, यवन, तुरुषक, आंध्राभ्रत्या, गर्भिन आदि जनजातियों का विस्तृत वर्णन है लेकिन गुर्जर नाम की किसी जनजाति का उल्लेख तक नहीं।

इनके अलावा भी गुप्तेत्तर काल से लेकर 11 वीं-12 वीं सदी तक जितने भी ग्रंथ या शिलालेखों में गुर्जर का उल्लेख हुआ है वह स्थान वाचक के रूप में ही हुआ है । इस अत्यंत विस्तृत काल के अच्छी खासी मात्रा में उपलब्ध साहित्य के अध्ययन से उस समय के भूगोल, समाज, संस्कृति का विस्तृत ब्यौरा मिल जाता है विशेषकर पश्चिमी भारत का क्योंकि इस काल का अधिकतर साहित्य पश्चिम और मध्य भारत में रचा गया मिलता है. इसमें हर तरह की कई दर्जनों बड़ी-छोटी जातियों और जनजातियों का बारमबार उल्लेख मिलता है लेकिन गुर्जर नाम की किसी जनजाति या नस्ल का कोई उल्लेख नहीं मिलता ।

यह हैरतअंगेज बात है कि जिस काल्पनिक गुर्जर जाति के नाम पर एक विशाल प्रदेश का नाम पड़े होने और उस जाति से क्षत्रिय ब्राह्मण बनिया सुथार सुनार आदि अनेकों जातियों के पैदा होने की बात की जाती है जो कि भारत में किसी अन्य जनजाति के साथ नहीं देखने को मिलती, उस जाति का उसकी काल्पनिक उत्पत्ति से लेकर लगभग 1000 साल तक कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता जबकि इसी दौरान अनेकों ग्रंथों में गूजर नाम के भौगोलिक प्रदेश और उसके निवासियों का उल्लेख हुआ है।

इस पशुपालक गूजर जाति का पहला उल्लेख सोलवीं सदी में बाबर द्वारा अपनी आत्मकथा में किया गया है जिसमें वह पेशावर घाटी में इनको किसी अपराध कि सजा दिए जाने का उल्लेख करता है।

उसके बाद जहांगीर द्वारा लिखित अपनी आत्मकथा में पंजाब में गुजरात नामक जगह पर गूजरों को बसाते हुए उन्हें दही दूध पर जीवन यापन करने वाला बताया गया है।

गुप्तोत्तर काल से लेकर पूर्व मध्य काल तक पश्चिम भारत मे जो प्रदेश गुर्जरात्रा या गुर्जरदेश के नाम से जाना जाता था और जिस की सीमा में आज के दक्षिण पश्चिम राजस्थान के जालोर, सिरोही और आज के उत्तर गुजरात का बनासकांठा क्षेत्र आता था उस क्षेत्र में इतिहास में कभी भी गुर्जर नाम कि किसी पशुपालक जाति या इस नाम कि किसी भी जनजाति का अस्तित्व ना होने के ही प्रमाण मिलते हैं. फिर सवाल पैदा होता है कि इस क्षेत्र का नामकरण कैसे हुआ?

मेरी थ्योरी के अनुसार इस क्षेत्र का नाम यहां की अर्थव्यवस्था और समाज के पशुपालन पर टिके होने और इसका कारण वहां गौचर(चारागाह) की भूमि प्रचुर मात्रा मे होने की वजह से पड़ा। गुर्जर/गूजर गौचर का ही अपभ्रंश है।

यह क्षेत्र संपूर्ण इतिहास में पशुपालन के लिए प्रसिद्ध रहा है. यू तो पश्चिमी भारत के विशाल भूभाग में चारागाहयुक्त जंगल और पशुपालन पर आधारित समाज की ही प्रधानता थी लेकिन पश्चिमी भारत में भी यह गुर्जरात्र क्षेत्र इस मामले में सबसे आगे था।

पुरातत्विक साक्ष्य से यह ज्ञात होता है कि हड़प्पा काल के बाद से ही इस क्षेत्र में खानाबदोश पशुचारण कि प्रधानता हो गई थी. यह इलाका पूर्णतया अनुपजाऊ था और कटीली झाड़ और मोटी घास युक्त घास के मैदानो से भरपूर था। .

लगभग 2 हजार साल पुराने यूनानी ग्रन्थ “पेरिप्लस ऑफ़ द एरिथरियन सी” मे भी इस क्षेत्र मे गायों के विशाल झुण्ड होने का विशेष रूप से उल्लेख है.।

आज भी भारत के सबसे सघन घास के मैदान और चारागाह(गौचर) भूमि इसी क्षेत्र में मिलती है। वर्षण कि कमी और लवणता दोनों कारणों से यह क्षेत्र कृषि के लिए अनुपजाऊ था. इन कारणों से कृषि बेहद सीमित होने के कारण यहां की जनसंख्या पूरी तरह पशुपालन से जुड़ी हुई थी। यहां तक कि कुछ दशक पहले तक भी देश का यह संभवतया अकेला क्षेत्र था जहाँ बहुसंख्यक आबादी के लिए कृषि की बजाए पशुपालन आजीविका का मुख्य आधार था। क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य जातियां भी पशुपालन से जुड़ी हुई थी. गुजरात का बनासकांठा जिला देश में एकमात्र जिला होगा जहां आज भी बहुसंख्यक आबादी के लिए कृषि के बजाए पशुचारण आजीविका का एकमात्र साधन है.।

आज भी देश मे रबाड़ी, भरवाड़, चारण जैसी अनेको पशुचारण जातियो की सबसे बड़ी आबादी इसी क्षेत्र मे है। इस क्षेत्र में इन पशुचारणों के लिए ‘मालधारी’ यानी मवेशीयो के संरक्षक नाम कि परिभाषा का इस्तेमाल किया जाता है. आज भी इन मालधारियों कि बहुसंख्यक आबादी खानाबदोश पशुचारण करती है.।

वढियार नाम का विशाल क्षेत्र जिसका नाम ही घास के प्रदेश होने के नाम पर पड़ा है, वो इसी क्षेत्र से लगा हुआ है. रण से लगते इलाके में आज भी चारागाह के विशाल मैदानो कि बड़ी बेल्ट है.।
देश के सबसे बड़े घास के मैदान ‘बनी ग्रासलैंड’ भी इसी से लगते क्षेत्र में मिलते हैं। बल्कि इस प्राचीन गुर्जरात्र और कच्छ से लेकर उत्तर पश्चिम सौराष्ट्र तक पूरी बेल्ट जाती है जिसमे चारागाह युक्त मैदानों कि पूरी श्रँखला है और गुर्जरात्र के पशु चारणों के लिए सालाना प्रवासन के मार्ग बने हुए थे.।

आज देश की सबसे बड़ी पथमेड़ा गौशाला भी इसी प्राचीन गुर्जरात्र क्षेत्र के बीचों बीच स्थित है। एशिया की सबसे बड़ी डेरी बनास डेरी भी इसी क्षेत्र मे स्थित है जहां से दुग्ध उत्पादों कि सप्लाई पूरे देश में होती है. कांकरेज नस्ल का गौ वंश इसी क्षेत्र कि नस्ल है.। चारागाह कि बाहुल्यता के कारण ना केवल गौ और महिष वंश बल्कि भेड़-बकरी, ऊंट और अश्व पालन भी इस क्षेत्र कि पहचान है.।

राजस्थान और गुजरात मे आज भी हर गांव मे पशुओ के चरने के लिए काफ़ी मात्रा में चारागाह भूमि छोड़ी हुई है जिसे गौचारण या गौचर भूमि कहते हैं. इस प्राचीन गुर्जरात्र प्रदेश मे अधिकतर भूमि ही गौचर भूमि होती थी संभवतः जिस कारण इस प्रदेश का नाम गौचर भूमि बहुल होने से गुर्जरदेश पड़ा और यहां के निवासियों को गुर्जर कहा गया। कई बार जैसलमेर-जोधपुर मरुस्थल को मिलाने के बाद इस प्रदेश को गुर्जर-मारू भी कहा जाता था।

मूल गुर्जर देश आज के गुजरात का बनासकांठा और राजस्थान का जालोर जिला ही था.। राजनितिक एवं अन्य कारणों से प्रदेशो की सीमाए बदलती रही हैं. पूर्व मध्यकाल में इस गुर्जरात्र प्रदेश की सीमाओ में आनर्त प्रदेश भी समाहित हो गया और तब से अब तक इस गुजरात प्रदेश की सीमाओ में बहुत बदलाव आया है.। लेकिन चाहे प्राचीन गुर्जरात्रा रहा हो या आधुनिक गुजरात, इस क्षेत्र में कभी भी किसी गुर्जर नाम कि ऐसी जनजाति के होने के प्रमाण नहीं मिलते और ना ही आज ही यहां कोई गुर्जर नाम कि जनजाति मिलती. प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक जिन भी व्यक्तित्व या वर्गों के लिए इस क्षेत्र में गुर्जर शब्द का इस्तेमाल किया गया है वो सब क्षेत्र वाचक संज्ञा के रूप में ही किया गया है फिर चाहे वो प्राचीन कालीन राजपूत शासक हो, मध्यकालीन गुजरात के सुल्तान हो या आधुनिक काल में महात्मा गांधी और जिन्नाह जैसे व्यक्तित्व.।

बल्कि जिस गूजर नाम की जाति को इस क्षेत्र से जोड़ा जाता है उस जाति का इस क्षेत्र से कभी कोई संबंध नहीं रहा.। इस जाति की उत्पत्ति ही मध्यकाल में पूर्वी राजस्थान में होने के स्पष्ट संकेत मिलते हैं.।

गुर्जरात्र का नाम किसी गुर्जर नाम की जाति पर पड़ा होगा ऐसा अनुमान लगाना स्वाभाविक है. डेढ़ सदी पहले ब्रिटिश प्रशासक और शौकिया इतिहास लेखक AMT Jackson ने बिना जांचे इस अनुमान के आधार पर ही गुजरात में इस नाम की एक जाति होने, उनका राज होने और उससे अनेको जातियों के निकलने की पूरी संकल्पना बना ली। . इसके लिए उसे ज्यादा दोष नहीं दे सकते। . लेकिन पिछली डेढ़ सदी में बिना जांचे इस अनुमान के आधार पर गुजरात राज्य की उत्पत्ति की यह गलत संकल्पना लोकप्रिय रही है और इसका अकादमिक विमर्श में पता नहीं कितनी जगह प्रयोग किया गया है, यह भारतीय अकादमिया में विद्वता के स्तर को दर्शाता है.।

References-

1.Kuvalyamala- A source of social and cultural history of Rajasthan, HJ Manglani
2. Notes in Translation of ‘Natyashastra’ by Manmohan Ghosh
3. हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन, वासुदेव शरण अग्रवाल
4. Society and culture in the time of Dandin, Dharmendra kumar Gupta
5. The case for mobile pastoralism in post Harappa Gujarat, Supriya verma.
6. Pastoralism in Rajasthan and Gujarat, Overseas development institute, London.
7. Pastoralism in India: A scoping study, VP Sharma, Ilse Kohler, John Morton
8. Marwar census report 1891, Munshi Hardayal Singh.
9. Gazetteer of the Bombay presidency, vol. 5, Kutch, Palampur and Mahikan
10. Gurjarbhumi blog by Airavat Singh

Written by Pushpendra Guhilot

 


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