हमारे प्रेरणा स्त्रोत : आयुवान सिंहजी हुडील का क्षत्रिय युवाओं को सन्देश


Late Ayuvaan Singhji Hudeel addressing a camp of Kshatriya youth. In background, Jantar Mantar built by Maharaja Jai Singhji Kachhwaha II behind, which is symbol of both rationalism and (in popular culture) democratic protest.

1. आयुवान सिंह शेखावत  का जीवन परिचय 

अपने सहयोगियों में माट्साब कहे जाने वाले स्वर्गीय आयुवान सिंह शेखावत का  जन्म 17 अक्टूबर 1920 को एक साधारण राजपूत परिवार में नागौर जिले के शेखावाटी की सीमा पर स्थित ग्राम हुडील में हुआ। वे 1943 से ही राजस्थान राज्य के किसान सभाओं, विशेषकर क्षत्रिय समाज, की गतिविधियों से जुड़े।  1949 में दोनों में उन्होंने  चौपासनी आंदोलन में अपनी नेतृत्व क्षमता एवं अपनी  दूरदर्शिता का परिचय समाज को दिय। 1952  में प्रथम आमचुनावों में  वे महाराजा हनवंत सिंहजी  के रणनीतिकार बनकर उभरे।  1954 में तात्कालिक मुख्यमंत्री  जय नारायण व्यास की सरकार के  भूमि अधिग्रहण कानून की आड़ में राजपूतों की आजीविका के प्रमुख साधन जमीनों को छीना गया, तब आयुवान सिंघजी ने 1955  में किशनगढ़ में अपने सहयोगियों के साथ रणनीति बनाकर  भूस्वामी आंदोलन की शुरुआत की । आयुवान सिंघजी क्षत्रिय परिषद् के प्रेरणास्तोत्र इसलिए भी है क्योंकि उन्होंने सर्वप्रथम ब्राह्मण बुद्धिजवी वर्ग और बनिया पूंजीपति वर्ग के क्षत्रिय विरोधी अमानवीय गठबंधन  सचेत तो किया ही, बल्कि क्षत्रियों के रूढ़िवाद और उनके द्वारा राजा महरजाओं के अंधानुकरण का भी घोर विरोध किया।  हम यूँ कह सकते हैं कि गत सौ सालों में आयुवान सिंघजी उन दुर्लभ बुद्धिजीवियों में से हैं, जिन्होंने क्षत्रियों के परिप्रेक्ष अनुसार क्षत्रिय इतिहास, क्षत्रियों कि तात्कालिक आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक विडंबनाओं पर निर्भीकतापूर्वक विचार विमर्श किये, जिसे उन्होंने अपनी चार पुस्तकों – “‘मेरी साधना‘”,”हमारी ऐतिहासिक भूलें” , “राजपूत और जागीरें” और “राजपूत और भविष्य” में व्यक्त किया।ज्ञान और विज्ञान हर समय अपडेट होते रहना समाज की प्रगति के लिए अनिवार्य है।  अतः ज़रूरी नहीं कि एक पीढ़ी के विचार दूसरी पीढ़ी में भी सटीक बैठते हों, किन्तु पुरानी पीढ़ी के कुछ ऐसे अनुभव हैं, संघर्ष हैं  और ऐसी शाश्वत विवेचनाएं हैं जिनसे नई पीढ़ी सीख उनपर अपनी दिशा निर्माण कर सकती है।।  यह अध्याय उनके कुछ विचार बिंदुओं पर प्रकाश डालता है। जिनके ज़रिये क्षत्रिय युवाओं में अपने भविष्य एवं अस्तित्व को लेकर सही  सामाजिक और राजनैतिक विमर्श स्थापित किया जा सकता ह।  हमें आशा है  कि  उन्हें सही दिशा में सही तरीके से अपनी सामुदायिक ऊर्जा लगाने में साहयक होगा।  

२ क्षत्रियों के सुनियोजित पतन का कारण :  क्षत्रिय नवयुवकों में आत्महीनता और क्षत्रिय विरोधी जातिये वैमन्यस्य 

“इस संसार में क्षत्रिय जाति के अतिरिक्त कदाचित ही कोई जीवित जाति होगी जिसके इतिहास की इतनी सुदीर्घ परम्परा हो।  जिस जाति का इतना उज्जवल दीर्घ और गौरवमय इतिहास हो वह भावी इतिहास बनाने में इतनी तटस्थ, निर्लिप्त और उदासीन कैसे रह सकती है ” (राजपूत और भविष्य, पेज १९)।    “अतएव वही देखना है कि संसार की प्राचीनतम शासक जाति किस प्रकार पहले पहल राज्य-सत्ता हीन बना दी  गई।  संसार की प्रबल और पराक्रमी जाति को किस प्रकार संघर्षहीन, परावलम्बी, भीरु और नैतिकताहीन बनाया जा रहा है और किस प्रकार उसके राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक अस्तित्व अस्तित्व को कुचलकर उसके सम्पूर्ण सामुदायिक अस्तित्व को ही समूल नष्ट करने का प्रयास हो रहा है (राजपूत और भविष्य, पेज ३०)।” इस तरह वे पूछते हैं कि जिस समाज ने इतने शहर, किले, बावड़ियों का निर्माण किया, दुनिया के सभी बड़े धर्मों में अपना योगदान दिया, यूनानियों से लेकर अंग्रेज़ों तक से युद्ध लड़ा वह इतनी महत्कांक्षा रहित, आत्मविश्वास विहीन और राजनैतिक पिछलगू कैसे बना।

इसका प्रतिउत्तर वे 19 वि सदी में हुए बदलावों पर प्रकाश डालकर करते हैं।  वे लिखते हैं  कि “तुर्कों और मुगलों के शासन काल में राजपूतों को किसी न किसी रूप में सदैव लड़ना ही पड़ता था।  कहने की आवश्यकता नहीं कि युद्ध की इसी निरंतर आवश्यकता और संभावना ने क्षत्रियों को सदैव क्रियाशील, कर्मठ, सतर्क और साहसी बनाये रखा (राजपूत और भविष्य, पेज ३४)। ” ” मुगलशाह के अंतिम दिनों में महाराष्ट्रियन ब्राह्मणों ने मराठों को आगे करके एक बार फिर समाज पर प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास किया किन्तु इससे अराजकता और अव्यवस्था उस समय की  दैनिक बुराइयां बन गई।” इस विफलता के बाद मराठी ब्राह्मणों द्वारा प्रभुत्व स्थापित करने के इस सैनिक प्रयत्न की भी प्रतिक्रया प्रारम्भ हुई किन्तु इस बार नवीन विचारधारा, नवीन साधनों, नवीन व्यक्तित्वों और नवीन परिस्थितियों में हुई (राजपूत और भविष्य, पेज ३४)। “

अंग्रेज़ों द्वारा सत्ता प्राप्ति एक महत्वशाली परिवर्तन था।  “यह नवोदित अँगरेज़ बनिया वर्ग क्षत्रियों को शान्ति और व्यवस्था की पूड़ियों में मीठा विषपान कराता रहा (राजपूत और भविष्य, page 35)। “ “उनका सम्पूर्ण आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक ढांचा जीर्ण  और निर्बल हो गया और वह किसी भी हलके से धक्के द्वारा धराशायी होने की प्रतीक्षा में दिन बिताने लगा।  अंग्रेज़ों द्वारा स्थापित तथाकथित शान्ति, सुरक्षा, और व्यवस्था क्षत्रियों के नाश का सीधा कारण बानी (राजपूत और भविष्य, page 35)। ” “अस्तित्व का एक मात्र आधार होता है” उपयोगिता।”निरूपयोगी वस्तुएं स्वत: नष्ट हो जाती है। उपयोगिता का यह नियम प्राणी वर्ग, वनस्पति वर्ग और मनुष्य वर्ग में समान रुप से लागू होता है।यही नियम मनुष्य द्वारा निर्मित आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक संस्थाओं के लिये भी उतना ही सत्य है (राजपूत और भविष्य, page 38)।” “हूण,अरब, तुर्क शक्ति के प्रयोग से क्षत्रियों को नष्ट नहीं कर सके पर अंग्रेज़ों और उसके बाद कांग्रेस की आड़ में  ब्राह्मण बुद्धिजीवी और बनिया पूंजीपति ने क्षत्रियों के स्वाभाविक उत्तरदायित्व और कार्यों का अपहरण कर उनकी संस्थाओं को निरुपयोगी बना दिया और इस प्रकार उनका नाश रचा (राजपूत और भविष्य, page 38) ।”

ब्राह्मण बुद्धिजीवी और बनिया पूंजीपति ने अंग्रेज़ों की मदद और उनकी सहानुभूति से कोन्ग्रेस और हिन्दू महासभा का निर्माण किया, जिनमें धन अर्जन के उद्देश्य से उन्होंने तात्कालिक राजनैतिक रूप से अनभिज्ञ क्षत्रिय राजाओं और जागीरदारों को भी टोकन हिस्सेदारी दी।  “भारतीय इतिहास में यह पहला ही समय था ब्राह्मणों को सत्ता प्राप्ति और क्षत्रियों के नाश के लिए वैश्यों से गठबंधन करना पड़ा।  भारत में इन दो बुद्धिजवी और पूंजीपति जातियों का यह गठबंधन श्रमिक जातियों के अलावा क्षत्रियों के पूर्ण विनाश की सामग्री जुटाने में पूर्ण सफल हुआ (पेज ३६)।” 

इसी ब्राह्मण बनिया निर्देशित सुनियोजित दुष्प्रचार के कारण (1) क्षत्रिय नवयुवकों , विशेषतः अर्धशिक्षित और अपूर्णशिक्षित व्यक्तियों में और अमीर वर्ग में आत्म-हीनता की विनाशकारी भावना का प्रादुर्भाव हुआ।  (2) इस प्रचार द्वारा अन्य श्रमिक जातियों को भी क्षत्रियों के विरुद्ध उकसाया गया ; (3) इसी प्रचार के कारण शहरों में रहने वाले सभी तटस्थ और बुद्धिजीवी तत्वों की दृष्टि में क्षत्रिय युवाओं को घृणा का पात्र बनना पड़ा, और किसी वास्तविक एवं उचित कारण के वे उनके विरोधी बन गए। (4) और यह ब्राह्मण बनिया वर्ग देशभक्ति का चोला ओढ़कर श्रमजीवियों और बुद्धिजीवियों के घृणा प्रवाह से स्वयं सुरक्षित हो गया” “इस तरह अपने अधिकारों के प्रति अचेत,राग-रंग में मस्त और राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय घटना-चक्र को समझने में असमर्थ राजपूत-वर्ग को समस्त बुद्धिजीवी और अपनी प्रजा का घृणा पात्र बनना पड़ा (राजपूत और भविष्य, पेज 37)। “

“अंग्रेज़ों की इसी ‘फूट डालो और शासन करो’ की निति को कोन्ग्रेस और आरएसएस  के ब्राह्मण बनिया नेतृत्व ने भी अति प्रबल वेग और सावधानी से अपनाये रखा।  भारत के लगभग सभी देशी राज्यों और विशेषकर राजस्थान में कोन्ग्रेस्स बुद्धिजीवी वर्ग की निति का ेमात्र आधार क्षत्रियों और जनता के अन्य वर्गों में फूट डालकर अपना प्रभाव बढ़ाने का रहा है।  इस बुद्धिजीवी पूंजीपति वर्ग ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए सैकड़ों वर्षों से एक साथ रहने वाले समुदायों को परस्पर लड़ा दिया (पेज ४६)। ”  इसी बुद्धिजीवी पूंजीवादी गठबंधन द्वारा  सभी देशी राज्यों में एक सिरे से दूसरे सिरे तक योजनाबद्ध रूप से झगड़ों और मारकाट का आयोजन कराया गया – कहीं जाटों द्वारा, कहीं मीणाओं द्वारा, कहीं गूजरों द्वारा क्षत्रियों से लड़ने की चुनौतियां दिलाई गई।  उनके द्वारा क्षत्रिय महिलाओं तक को अपमानित कराया गया। बनिया पूंजीवादियों और ब्राह्मण  बुद्धिजीवियों द्वारा पोषित यह घृणित सिलसिला आज भी राजस्थान के गाँवों में प्रचलित है, जिसके परिणामस्वरूप कई निर्दोष व्यक्तियों की प्रति वर्ष हत्याएं होती रहती हैं।  इन हत्याकांडों में गाँवों में बसने वाले क्षत्रिय और अन्य निर्दोष लोग ही मारे जाते हैं।  

आयुवान सिंहजी इसी गठबंधन को जाट निरंकुशता (और गुज्जर निरंकुशता) का संरक्षक भी मानते हैं । “जाट सभाओं का पृथक अस्तित्व रखते हुए भी उनका सम्बन्ध इन बुद्धिजीवियों के संगठनों से किसी न किसी रूप में जोड़ दिया गया।  इन जाट सभाओं को माध्यम बनाकर उन राज्यों में वर्ग-घृणा, वर्ग-द्वेष, वर्ग-संघर्ष आदि की नींव डाली गई (page 46)।   नाजी नेता डॉक्टर गोबेल्स का कहना था कि किसी भी झूठ को तीन बार सत्य कि भाँती ही दोहरा दो तो जनता उसे सत्य ही समझने लग जायेगी।  इस बुद्धिजीवी वर्ग ने मानो इसी वाक्य को अपना गुरु मंत्र माना है और इसलिए देश के प्रेस  और रंगमंच  पर एकाधिकार करके इस वर्ग ने प्रत्येक क्षेत्र में झूठ पर सुनहले सत्य का आवदेन चढ़ा रखा है (page 76) । इन बुद्धिजीवी पूंजी जीवी तत्वों के संयोगवश गठबंधन से एक और जहां क्षत्रिय वर्ग निकम्मा हुआ तो दूसरी ओर देश के श्रमजीवी शूद्र- वर्ग का नवीनतम नेतृत्व इन तत्वों की स्वार्थपूर्ति के लिए उपयोग होने लगा (page 38)।  

  1. आज़ादी के बाद क्षत्रिय जाति के तीनों वर्ग की दशा 

आज हम युवा इतिहासचोरी,  हमारे समाज के मीडिया ट्रायल, सिनेमाई चित्रण, शैक्ष्णिक और प्रशासनिक भेदभाव से परेशान रहते हैं और यदाकदा आरक्षण एवं मूल ओबीसी, एससी और आदिवासी समुदायों की राजनीति पर डाल देते हैं , किन्तु यही समस्या भारत के स्वतंत्र होने के तुरंत बाद भी उत्पन्न हुई थी। 1956 में छपी “राजपूत और भविष्य” (पेज ५१ से ५३) में आयुवान सिंहजी लिखते हैं की क्षत्रियों के तीन वर्ग हैं : राजा महाराजा और बड़े जमींदार ; मध्यमवर्गीय जागीरदार जो मुख्यतः सेना में काम करते थे, बहुसंख्यक गरीब राजपूत। 

  1.  राजा महाराजों से उनके विशाल राज्य, उनके शहर, उनके द्वारा बनाये इंफ्रास्ट्रक्चर और उनकी सेनाएं छीन ली गई किन्तु इस वर्ग ने भी अपनी ज़िम्मेदारियों से बचने हेतु आम राजपूतों (जागीरदार और गरीब तबके) से स्वयं को काट अपने बनिया ब्राह्मण बंधुओं के साथ अपने  हित जोड़ दासिता स्वीकार करली। ब्राह्मणवादियों  और पूंजीवादियों के प्रभाव की सांगत में रहने वाला यह वर्ग आज केवल प्रदर्शन की वास्तु बनकर सिमट गया।  
  2.  दुसरा वर्ग, जिसे आयुवान सिंहजी “समाज का मक्खन” कहते हैं, वह था  मध्यमवर्गीय राजपूत सैनिकों और अफसरों का वर्ग था, वह आज़ादी से पूर्व अपनी सैन्य वृत्ति और अपनी भूमि पर आश्रित था। बनियों से उधार लेकर एवं अपनी भूमि पर कुए, तालाब आदि बनवाता था।  इस वर्ग से बिना उचित मुआवजे दिए  ज़मीन ली गई और इन्हें  हज़ारों की तादात में सेनाओं और नौकरियों से निकाला गया। इन कर्मचारियों  और नौकरों के  साथ प्रशासन ने प्रारम्भ से ही सौतेला व्यवहार शुरू किया (राजपूत और भविष्य, पेज ५२।  आर्थिक दृष्टि से इसी वर्ग ने ब्राह्मण बनिया बुद्धिजीवी वर्ग का कोप सबसे अधिक झेला।  
  3. 3. तीसरा वर्ग, गरीब कृषि वर्ग राजपूतों का था, जो बहुसंख्यक भी है , अभावग्रस्त भी और अशिक्षित भी।   ब्राह्मण बुद्धिजीवियों और जाट राजनेताओं ने बनियों के पूंजी सहारे प्रचार करके सामंत स्थापित किया ,जिस कारण गरीब किसान होकर भी इन्हें हर कृषक डिस्कोर्स  से दूर ही नहीं रखा गया अपितु किसानों का शत्रु स्थापित किया गया।  आर्थिक ही नहीं अपितु बुद्धिजीवियों पूंजीपतियों द्वारा षड्यंत्रों से उत्पन्न जातिए टकराव और हिंसा का भुगतभोगी भी यही वर्ग होता है।  

“इन सब परिवर्तनों का अर्थ सभी वर्गों को आर्थिक उन्नति का समान अवसर और अधिकार देना कदापि नहीं था। ।  परन्तु इन सब परिवर्तनों का प्रत्यक्षतः एक ही अर्थ है और वह कि वैधानिक और कानूनी तरीकों की आड़ लेकर राजपूतों को किस प्रकार अधिक से अधिक निराश्रित और आर्थिक दृष्टि से पंगु बनाया जाए (राजपूत और भविष्य, पेज ५३। ” क्योंकि क्षत्रिय ज़मींदारों की भाँती  ब्राह्मण प्रशासनिक और बनिया पूंजीवादी वर्ग के वर्चस्व को कानूनी हस्तक्षेप से कम करना तो दूर उसे और सुदृढ़ किया गया ।

  1. देशी क्षत्रिय बनाम ब्रिटिश इंडिया के निवासी क्षत्रियों पर भिन्न प्रतिक्रया

“1947  के तुरंत बाद की परिस्थितियों के हिसाब से  हम भारत के राजपूतों को राजनैतिक दृष्टि से दो भागों में बाँट सकते हैं – देशी राज्यों में रहने वाले और देशी राज्यों से बाहर रहने वाले।  इन दोनों की राजनैतिक समस्याएं भी भिन्न भिन्न थीं। देशी राज्यों में रहने वाले राजपूत सीधे रूप में शासक वर्ग  के समीप था  (राजपूत और भविष्य, पेज ४४)। ”  यद्यपि वह ब्राह्मण  वर्ग से आर्थिक रूप से सबल हो या न हो, किन्तु वह उनसे सामाजिक और राजनैतिक रूप से ज़्यादा सक्षम था।  इस वर्ग को प्रजा मंडलों के नाम पर कोंग्रेसी ब्राह्मण बनिया बौद्धिक वर्ग ने  किस तरह अन्य श्रमिक जातियों से भिड़ाकर क्षीण किया उस पर लिखा जा चुका है।  किन्तु ब्रिटिश इंडिया के क्षत्रियों के लिए अलग हथकंडे अपनाये गए क्योंकि कांग्रेस जहां क्षत्रिय ज़मींदारों पर धन और स्थानीय नेतृत्व के लिए निर्भर था तो वहीँ आम कृषक क्षत्रिय कांग्रेस में कार्यकर्ता थे जो ज़मीनी काम किया करते थे। आयुवान लिखते हैं कि यह निर्भरता इसलिए थी   क्योंकि ये बुद्धिजीवी पूंजीपति वर्ग का अखबारी संसार के अतिरिक्त अन्य जनता से उनका संपर्क नहीं के बराबर था (पेज ४५)।  देशी राज्यों के राजपूत जहां मुख्यतः कोंग्रेसी संगठनों द्वारा उत्पन्न वातावरण के विरुद्ध अपनी रक्षा में लगे रहे, वहां अन्य प्रांतों के राजपूत कांग्रेस के साथ होकर अंग्रेज़ों से भारत को स्वतंत्र कराने के लिए सक्रिय कार्य करते रहे।  जिन प्रांतों के राजपूतों ने स्वतंत्रता प्राप्ति में योग दान दिया उनमें मुख्या स्थान उत्तर प्रदेश, बिहार और विंध्य प्रदेश के राजपूतों का है।  इन दोनों प्रांतों में धन-जान से राजपूतो द्वारा कांग्रेस कि पूर्ण सहायता की गई।  जहां जहां भी आंदोलन हुए , जीवन और संपत्ति के लिए ख़तरा उत्पन्न हुआ, वहां वहां क्षत्रियोचित सरल स्वभाव के कारण ये राजपूत सबसे आगे रहे। किन्तु इस समस्त परिश्रम और त्याग का श्रेय उन्हीं बुद्धिजीवी तत्वों को मिला जिनकी संख्या आन्दोलनों में भाग लेने वाले राजपूतों से कहीं अधिक कम थी।  किसी भी नेता ने उनकी प्रशंसा में दो शब्द तक नहीं कहे।  आज राजस्थान, पंजाब, सौराष्ट्र, मालववा, उड़ीसा और हिमालय के राजपूतों को यह ज्ञात भी न हो कि बिहार और उत्तर प्रदेश के भाइयों ने भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में कितना महत्पूर्ण योगदान दिया था । यह सब इसलिए कि आज का प्रभुत्व संपन्न, बुद्धिजीवी वर्ग राजपूतों के स्वाभिमान को जागृत कर, अपने महत्त्व को कम करना नहीं चाहता (पेज ४८)। “

“इस प्रकार कोंग्रेसी बुद्धिजीवी ने यूपी बिहार के राजपूतों का भी राजनैतिक शोषण किया।  कांग्रेस के सबसे शक्तिशाली गढ़ उत्तर प्रदेश और बिहार बिहार में यदि उसे स्वतन्त्रता के पूर्व राजपूतों कि सहायता प्राप्त न होती तो भारत में आज कांग्रेस कि क्या दशा होती, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है (पेज ४८)। “

  1. समस्या और  समाधान

इसी तरह आयुवान सिंहजी ने राजपूतों के सामाजिक और आर्थिक पतन का कारण राजनैतिक पतन; और राजनैतिक पतन का कारण बौद्धिक एवम शैक्षणिक पतन एवम समाज में फैले रूढ़िवाद को मानते हैं।

अतएव, वे राजनैतिक उत्थान को सम्पूर्ण उत्थान के लिए आवश्यक मानते हैं, किंतु यह भी रेखांकित करते हैं कि समाज के बौद्धिक विकास के बिना राजनैतिक उत्थान असंभव है।

अंत में वे श्रमिक वर्ग अर्थात मूल ओबीसी, एससी, एसटी के साथ सामाजिक सौहार्द एवं राजनैतिक सहयोग स्थापित करना चाहिए। वे लिखते हैं कि ” सौभाग्य से राजपूत इसी कृषक वर्ग के अंतर्गत आते हैं , अतएव उन्हें कृषक वर्ग के हितों को प्रमुखता देकर और उनको लाभ पहुँचाने वाले कार्यक्रमों को लेकर राजनैतिक क्षेत्र में कार्य करना चाहिए (पेज १५३। “कुछ लोग आज के शूद्र समझे जाने वाले और श्रमजीवी वर्ग से गठबंधन की बात सुनकर चौंक सकते हैं।  उनके चौंकने का कारण धर्म-संस्कृति आदि के प्रति कुछ रूढ़िगत और गलत धारणाएं हो सकती है।  इतिहास भी साक्षी है कि जब जब देश पर विपत्ति आई तब तब इसी पुरुषार्थी वर्ग ने अपना रक्तदान और सर्वस्व त्याग कर राजपूत सैनिकों का साथ दिया।  जबकि यह बुद्धिजीवी-वर्ग उस समय भी देश के लिए भार था और अब भी वैसा ही है (पेज १५३)। ”

6. योग्य नेतृत्व का अभाव

समाज में योग्य नेतृत्व के अभाव के कारणों को वे गिनवाते हैं :   

“आज इस बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा क्षत्रियों की पैतृक संपत्ति पर प्रहार किया गया है तो दूसरी और क्षत्रिय समाज के कतिपय अवसरवादी नीच और घृणित व्यक्तियों व्यक्तियों को राजपूतों का नेता स्थापित कर आम राजपूतों को अपनी कार्यसिद्धि के लिए साधन रूप में प्रयुक्त करने का प्रयास किया जा रहा है।  अतएव जहां एक और राजपूत समाज के ऐसे स्वार्थी और व्यक्तिवादी लोगों को नाना प्रकार के प्रलोभन  देकर प्रोत्साहित किया जा रहा है , तो वहीँ राजपूत समाज के ऐसे व्यक्तियों जो विरोधियों के इन नीच और अमानवीय हथकंडों से सावधान हैं तथा जनता को सचेत करते रहना चाहते हैं, उनका हर प्रकार से उत्पीड़न किया जाता है।  यह स्थिति केवल राजस्थान ही नहीं, वरन सौराष्ट्र, मध्यभारत, आदि सभी स्थानों पर है।” (page 55)।  

इसी किताब में उन्होंने समाज के निकम्मे और स्वार्थी राजनेताओं पर भी जमकर कटाक्ष मारा है। आज इन स्वार्थी और निकम्मे नेतृत्व को चुनौती देना एवं उनपर दबाव डालना क्षत्रिय युवा का सामाजिक कर्तव्य है।                 

“किसी के नेतृत्व में चलने वाला समाज यदी व्यक्ति वादी अथवा रुढ़िवादी है तो उस समाज में स्वाभाविक और योग्य नेतृत्व की उन्नति के लिए अधिक अवसर नही रहता। राजपुत जाति मे नेतृत्व अब तक वंशानुगत,पद और आर्थिक सम्पन्नता के आधार पर चला आया है।वह समाज कितना अभागा है जहां गुणो और सिध्दांतों का अनुसरण न होकर किसी तथाकथित उच्च घरानो मे जन्म लेने वाले अस्थि मांस के क्षण भंगुर मानव का अन्धानुकरण किया जाता है। सैकड़ों वर्षो से पालित और पोषित समाज के इन कुसंस्कारों को आज दुर करने की बड़ी आवश्यकता है।”

“अयोग्य नेतृत्व दुसरे किसी भी योग्य व्यक्ति को आगे बढता हुआ देख नही सकता वो नाना प्रकार के हथकण्डो द्वारा उसे समाप्त करने की चेष्टा मे लगा रहता है।इस प्रवृत्ति का स्वाभाविक परिणाम यह होता आया है कि एक समय में केवल एक ही नेता पर हम निर्भर रहते आए हैं और नेताओं की दुसरी पंक्ती का सदैव अभाव रहता आया है।”

“नेतृत्व की कुभावना को जड़ से बदलना होगा।भावी नेतृत्व को वंशानुगत के स्थान पर गुणानुगत बनाना है,जन्मना के स्थान पर कर्मणा बनाना है। नेतृत्व की कसौटी जन्म,कुल और व्यक्ति न होकर गुण, योग्यता और सिद्धांत होने चाहिए। स्वामिभक्ति की भावना को सिध्दांत भक्ति के प्रति नमनशिल बनाकर समाज में सही दृष्टिकोण का निर्माण करना होगा।”

7. रक्षात्मक नहीं बौद्धिक रूप से आक्रामक बनें

“गत सैकड़ों वर्षों से राजपूत इसी प्रकार के रक्षात्मक कार्यों में लगे रहे।  परिणाम यह हुआ कि न तो वे अपने हितों की रक्षा ही कर सके और न कोई नै चीज़ ही प्राप्त कर सके।  जब तक हम विरोधी शक्ति के प्रति प्रहारात्मक निति नहीं अपनाएंगे तब तक साधारण रक्षात्मक कार्य भी असफल रहेंगे।  रक्षात्मक कार्यों के असफल सिद्ध होने से निराशामूलक प्रवृत्ति का जन्म होता है , पर प्राहरात्मक निति के एक बार असफल हो जाने पर समाज की विशेष हानि नहीं होती और न निराशामूलक स्थिति ही उत्पन्न होती है।  भविष्य में हमारे कार्यक्रमों और निति का लक्ष्य विरोधी शक्ति के सिद्धांतों और निति पर निरंतर और भीषण प्रहार होना चाहिए (राजपूत और भविष्य, पेज ६५)।” 

“हमारी ऐतिहासिक भूलों” में वे पुनः लिखते हैं कि “रक्षात्मक नीति हमारे खुन मे प्रविष्ट कर गई हैं वह हमारा कुसंस्कार बन गई हैं।हम साधारण जिवन मे भी आक्रमण की लड़ाई नही लड़ते।हम आक्रमण ओर प्रहार करना भुल ही गये है।हमारे राजनैतिक शत्रुओं ने प्रेस और रंगमंच द्वारा हमारे पर आक्रमण का तांता लगा दिया। उन्होंने हमे राक्षस,अन्यायी, दुष्ट आदि के रुप में चित्रित करके हमारी परम्पराओं और संस्थाओं पर भीषण आक्रमण किये। उन्होंने बाद मे सत्तारुपी अणुबंम प्राप्त करके न केवल हमारे राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अस्तित्व को ही समाप्त किया है।अपितु हमारे साधारण जातिय अस्तित्व को भी वे आज समाप्त करते जा रहे हैं।”भुस्वामी आन्दोलन ओर जितने भी आज आन्दोलन हो रहे हैं रक्षात्मक है न की आक्रमणात्मक।

8. क्षत्रिय युवाओ को आयुवानसिंह का मार्मिक सन्देश

हमें इस बात को ध्यान में रखना है कि क्षत्रिय एक पूर्ण-विकसित समुदाय और राष्ट्र है । हमें यह भी याद रखना है कि इस समुदाय और राष्ट्र को भी अपनी जातिय-विशिष्टताओं और परम्पराओं सहित जीवित रहने का उतना ही अधिकार है जितना विश्व की किसी अन्य समुदाय को। हमें यह बतलाना है कि आज इस समुदाय को योजनाबद्ध रूप से समाप्त किया जा रहा है। हमें यह स्मरण दिलाना है कि क्षत्रिय समुदायके नाश से भारत-राष्ट्र का कुछ भी लाभ नहीं होगा। हमें यह सिद्ध करना है कि क्षत्रियसमुदाय के नाश में हिन्दू जाति की महान परम्पराओं और राष्ट्रीय गुणों का नाश है। हमें यह माँग करनी है कि क्षत्रिय समुदाय को इस पवित्र भारत-भूमि पर सम्मान सहित जीवित रहने का अवसर दिया जाय। हमें यह अनुभव करना है कि भारत राष्ट्र के प्रति हमारी भी जिम्मेदारियाँ हैं। हम यहाँ पर विदेशी अथवा तटस्थ दर्शक मात्र नहीं हैं। और अन्त में दृढ़तापूर्वक निर्णय करना है कि हम इसी भारत-भूमि पर सम्मान पूर्वक जीवित रहेंगे । न्याय मांगेंगे नहीं बल्कि उसे प्राप्त करेंगे।

इस समय प्रत्येक क्षत्रिय में राजनैतिक चेतना और महत्वाकांक्षा का होना आवश्यक है। इसी सामाजिक चेतना और राजनैतिक महत्वाकांक्षा सहित हमें अपने अन्य पुरुषार्थी भाइयों की सहायता करनी है, तथा उनको बुद्धिजीवी तत्वों से छुटकारा दिलाना है। इस प्रकार बुद्धिजीवी-वर्ग से सत्ता-हस्तांतरित कर लेना हमारी सफलता का प्रथम सोपान होगा। इस सत्ता प्राप्ति के उपरांत सब वर्णों को उचित रूप से शासनाधिकार देते हुए जनता के वर्तमान विजातीय-संस्कारों और भावनाओं में परिवर्तन लाकर विशुद्धात्मक-व्यवस्था की स्थापना करना हमारा अंतिम लक्ष्य होगा। अब हमारे सामने निश्चित रूप से दो कार्य-क्रम हैं-सतोगुणी जातीय-भाव का निर्माण करते हुए वास्तविक संगटन द्वारा शक्ति का निर्माण करना और पुरुषार्थी-वर्गों के साथ मिलकर बुद्धिजीवी-वर्ग को प्रजातान्त्रिक प्रणाली द्वारा सत्ताच्युत करना।

अतएव हमें निराशा और निरुत्साही होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। भविष्य निश्चित रूप से हमारे लिए आशावादी, प्रेरणादायी, विजयदायी, उज्जवल और उल्लासमय होगा। इसीलिए कायरता और ह्रदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग का खड़े हो जाओ। घबराते क्यों हो, स्वयं भगवान् का आदेश है-

क्लैब्यं मां स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्धते ।
तुच्छ ह्रद्यदौर्बल्यम त्यक्तवोत्तिष्ठ परंतप ॥

कायरता की और गमन मत कर, यह तेरे लिए योग्य नहीं है। हे शत्रुओं को तपाने वाले ! ह्रदय की तुच्छ दुर्बलताओं को त्याग कर खड़ा हो जा । – कुँवर आयुवानसिंह जी हुडील, पुस्तक: ‘राजपूत और भविष्य’ से साभार

 


क्षत्रिय सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक चेतना मंच।

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