क्षत्रियों का ब्रिटिश विरोधी विद्रोह और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान : दुष्प्रचार को तोड़ते तथ्य


“दुनिया से गुलामी का मैं नाम मिटा दूंगा।एक बार ज़माने को आज़ाद बना दूंगा।

बन्दे हैं ख़ुदा के सब, हम सब ही बराबर हैं,ज़र और मुफ़लिसी का झगड़ा ही मिटा दूंगा।

 कौम पर कुर्बान होना सीख लो ऐ हिन्दियो !ज़िन्दगी का राज़े-मुज्मिर खंजरे-क़ातिल में है ” 

1. हिन्दुस्तान सोशियलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के संस्थापक पंडित रामप्रसाद बिस्मिल द्वारा लिखित यह पंक्तियाँ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के विषय में लोकप्रिय  है, किन्तु आज बिस्मिल की पहचान पर काफी सामाजिक भ्रम है।  रामप्रसाद बिस्मिल  मुरैना के बड़वानी गाँव के तोमर राजपूत थे , जिन्हें पंडित उपाधि अपनी लेखनी और काव्य कौशल के कारण प्राप्त हुई । The Hindu ने 2013  और 2018 में उनके तोमर राजपूत परिवार का  इंटरव्यू भी किया था। आज इस बात पर प्रकाश डालना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि जो वर्ग बिस्मिल की पहचान पर भ्रम फैलाता  है , वही वर्ग अक्सर यह भी प्रचार करता है कि राजपूतो का स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान  नहीं था ।  

2. जैसे प्रसिद्ध इतिहासकार चौधरी हरबंस मुखिया 2018 में बीबीसी हिंदी में लिखते हैं कि अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में राजपूतों का कोई ख़ास योगदान नहीं था, तो वहीँ प्रसिद्ध फिल्मकार जावेद अख्तर ने 2017 में क्षत्रिय समाज को अंग्रेज़ों का गुलाम कहकर दावा किया कि क्षत्रियों ने तो कभी अंग्रेज़ो से लड़ा ही नहीं। फिल्मो और मिडिया प्लेटफॉर्म द्वारा बार बार ऐसा दुष्प्रचार केवल भारत के बुद्धिजीवी वर्ग और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में क्षत्रिय समाज के प्रति घृणा को उजागर करता है।

3. यह वर्ग भूल जाता है कि जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ब्रिटिश प्रशासन के लिए  VIP थे, तब HSRA  के  ठाकुर रामप्रसाद बिस्मिल और ठाकुर रोशन सिंह निकुम्भ काकोरी कांड के सिलसिले में हस्ते हस्ते फांसी चढ़ गए थे।   उसी प्रकार, अंग्रेज़ो को माफ़ीनाम लिखने वाला  और उनसे पेंशन लेने वाला सावरकर अंडमान के जिस कालापानी जेल में था , उसी कालापानी जेल में   HSRA के महावीर सिंह राठौड़ भी  थे ।  महावीर सिंह राठौड़ नौजवान भारत सभा के भी सदस्य  थे, जिन्हें  द्वितीय  लाहौर कॉन्सपिरेसी  के  मामले में  गिरफ्तार किया गया था।जब बंधी हकों के लिए भूख हड़ताल करने पर जेल कर्मियों द्वारा उनकी मारपीट से मृत्यु हुई, तब वे केवल 29 वर्ष के थे ।

 

4. सर्वप्रथम, बिहार में अंग्रेज़ों के विरुद्ध जमींदार विद्रोह 1781 में हुआ, जिसका नेतृत्व औरंगाबाद के राजा नारायण सिंह चौहान ने किया था। राजा ने 1764 में, जब उनके चाचा विष्णु सिंह राजा थे, ब्रिटिश समर्थक नायब मेहंदी हुसैन को औरंगाबाद में दुर्ग कचेरी से बाहर कर दिया था। प्रभावित होकर राजा विष्णु सिंह ने गद्दी छोड़ दी और नारायण सिंह को राजा घोषित कर दिया! हालाँकि, 1770 में जब क्षेत्र अकाल की चपेट में आ गया तो उन्होंने कर का भुगतान करने से इनकार कर दिया। उन्होंने अपनी संपत्ति स्वयं वितरित की।  अंग्रेजों ने जवाबी कार्रवाई करते हुए 1778 में उनके पवई दुर्ग महल को नष्ट कर दिया। शाहबाद के तत्कालीन कलेक्टर रेजिनाल्ड हैंड ने अपनी 1781 की पुस्तक ‘अर्ली इंग्लिश एडमिनिस्ट्रेशन’ में राजा को “अंग्रेजों का पहला दुश्मन” बताया है।

 

 

 

 

 

 

 

5. 1857 के सैन्य विद्रोह में शहीद हुए बागी सिपाहियों की इस सूचि में भी मुख्यतः क्षत्रिय और मुस्लिम नाम ही मिलते हैं। इतिहासकार साउल डेविड के अनुसार सैन्य विद्रोह करने वाली बंगाल नेटिव इन्फेंट्री का एक तिहाई हिस्सा बिहार और अवध  के क्षत्रिय सैनिको का था। 

6. म्यूटिनी के समकालीन लेखकों को यदि हम quote करें तो पाते हैं कि उत्तर भारत में 1857 की गदर के सूत्रधार राजपूत ही थे।

1858 में  ब्रिटिश ऑफिसर Colonel George B Malleson ने अपनी किताब (37) “THE  MUTINY OF THE BENGAL ARMY” में लिखा 

“प्रथम दृष्टि में मात्र सैन्य विद्रोह दिखने वाले इस क्रांति ने तेजी से अपना स्वरूप बदल लिया और यह एक राष्ट्रीय विद्रोह बन गया। बिहार के राजपूत गाँवों में, बनारस, आजमगढ़, गोरखपुर जिलों में, पूरे दोआब में, जिसमें इलाहाबाद, कानपुर, मेरठ और आगरा के संभाग शामिल हैं, रोहिलखंड और अवध के प्रांतों में हमारे शासन को हिलाकर रख दिया और हमारे खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी” 

7. इसी तरह A R Young लिखते हैं

शाहाबाद में क्रान्ति ने  एक राष्ट्रीय बगावत का रूप ले लिया स्थानीय राजपूत ज़मींदारों के समर्थन में जिले की पूरी राजपूत आबादी खड़ी हो गई।”

8. पूर्वांचल के भोजपुर क्षेत्र में क्रान्ति का नेतृत्व वीर कुंवर सिंह परमार ने, अपने भाइयों  अमर सिंह परमार और हरेकृष्ण सिंह के सहयोग से किया।  वीर कुंवर सिंह परमार ने 25 जुलाई को दानापुर में विद्रोह करने वाले सैनिकों की कमान संभाली। दो दिन बाद उन्होंने जिला मुख्यालय आरा पर कब्ज़ा कर लिया। मार्च 1858 में, उन्होंने आज़मगढ़ पर कब्ज़ा कर लिया और इस क्षेत्र पर कब्ज़ा करने के शुरुआती ब्रिटिश प्रयासों को विफल करने में कामयाब रहे।

9. एक ब्रिटिश राजनेता और लेखक सर जॉर्ज ट्रेवेलियन ने अपनी पुस्तक, द कॉम्पिटिशन वल्लाह में कुँवर सिंह और आरा की लड़ाई के बारे में लिखा है कि:

इन ऑपरेशनों की कहानी से दो तथ्य निकाले जा सकते हैं – पहला यह कि आरा में घर को घेरने वाले न तो कायर थे और न ही धोखेबाज़; और अगला यह कि यहम असामान्य रूप से भाग्यशाली थे कि कुंवर सिंह चालीस साल छोटे नहीं थे ।

10. ग़ाज़ीपुर, आज़मगढ़ और बनारस में  विद्रोह की खबर सुनकर, जौनपुर  के ठाकुर दयाल सिंह रघुवंशी ने स्थानीय क्षत्रियो को संगठित किया । घबराकर मजिस्ट्रेट फने पंडित  शेओ गुलाम दुबे को जिले का प्रभारी नियुक्त कर बनारस भाग गए । ठाकुर दयाल सिंह रघुवंशी ने किराकत तहसील और उसके आसपास के जिलों में  ब्रिटिश सत्ता पर आक्रमण किया। अंततः  उन्हें, उनके 12 रिश्तेदारों और 9 अन्य अनुयायियों के साथ एक आम के पेड़ से लटकाकर विद्रोह के लिए मृत्यु दंड दिया।

11. बागी राजा संग्राम सिंह 1857 के सबसे विद्रोहियों में से एक थे।3 महीने तक स्वतंत्र रहा ।उनका विद्रोह 1857 में नहीं रुका और अगले 15 वर्षों तक अंग्रेजों से लड़ते रहे। 1862 में ब्रिटिश सेना के साथ मुठभेड़ में उन्होंने ब्रिटिश लेफ्टिनेंट गार्टन को मार डाला जो जौनपुर के पुलिस अधीक्षक थे। संग्राम सिंह को कभी नहीं पकड़ा गया और वह जीवन भर विद्रोही बने रहे।

12. यूपी के फ़तेहपुर जिले में विद्रोह की चिंगारी भड़का  उसका  नेतृत्व अटैया गाँव के जोध सिंह गौतम और ठाकुर दरियेव सिंह गौतम ने अपने 50 साथियों के साथ किया।और जिले को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराकर शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली।एक माह बाद अंग्रेजों ने आक्रमण कर जोधा सिंह सहित सभी सेनानियों को गिरफ्तार कर लिया और क्रूरतम सजा देकर सभी को इमली के पेड़ पर फाँसी लटका दिया, जो  आज बावन इमली स्मारक के नाम से प्रसिद्ध है। 

13. गोरखपुर में डुमरी के जमींदार अमर शहीद बंधू सिंह श्रीनेत ने ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध छेड़ा।  12  अगस्त 1858  अंग्रेज़ों ने उन्हें पकड़कर गोरखपुर के अली नगर चौराहा पर फांसी दी, जहां आज भी उनका स्मारक है। 

14. अवध में स्वतंत्रता की क्रान्ति के मुख्य   नायक गोंडा के राजा राणा देवीबख्श सिंह बिसेन और राय बरेली के राजा राणा बेनी माधो सिंह बैस  थे। इन दोनों क्षत्रिय राजाओ ने  बेगम हज़रत महल की एक पुकार पर अवध में विद्रोह का परचम लहराया। बेनी माधो सिंह बैस के पास 4 किले थे : शंकरपुर, पुकबियान, भीखा और जगतपुर। ब्रिटिश यात्री जेम्स फोर्सिथ ने ब्रिटिश ऑफिसर एडमनस्टोन को लिखा कि, “बेनी माधो के पास अनुमानतः 25000 पुरुषों और 28 बंदूकों की बड़ी सेना है, जो पूरे सलोन जिले में बिखरी हुई है और सक्रिय है “। राणा बेनी माधव ने ही लखनऊ पर धावा बोल कर बेगम हज़रात महल को नेपाल पहुंचवाया और उनके प्राणों की रक्षा करी। ब्रिटिश सेना के 4 वरिष्ठ कमांडरों, जनरल लॉर्ड क्लाइड, जनरल होप ग्रांट, जनरल एवेलेघ और जनरल अल्फ्रेड हॉर्सफोर्ड को उन्हें खत्म करने के लिए भेजा गया था। राणा को आत्मसमर्पण करने और अपनी जान बचाने की पेशकश की गई लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया और विद्रोह को जीवित रखा।1859 में नेपाल के ब्रिटिश सहयोगी गोरखाओं से लड़ते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए। मरणोपरांत अंग्रेजी हुकूमत ने राणा बेनी माधो सिंह बैस की ज़मीनें लाहौर के महाराजा रंजीत सिंह के परपोते को प्रदान करी।

15. राणा बेनी माधो सिंह बैस के सहयोगी राजा देवीबख्श सिंह बिसेन गोंडा के 12 वे राजा थे जिन्हें आज भी साम्प्रदयिक भाईचारे का प्रतीक माना जाता है। इन दोनों क्षत्रिय राजाओ ने एक स्वर में अवध में विद्रोह का परचम लहराया। मरणोपरांत अंग्रेजी हुकूमत ने राणा बेनी माधो सिंह बैस की ज़मीनें लाहौर के महाराजा रंजीत सिंह के परपोते को प्रदान करी। देवी बख्श सिंह ने कई बार अंग्रेजों की सेनाओं को अपनी तोपों से सरयू नदी में मार कर दफन किया था । उनकी मृत्यु नेपाल में हुई और अंग्रेज़ों ने उनकी संपत्ति जब्त कर दी थी। अलाहाबाद के कालांकर ज़मींदारी  के राजा लाल प्रताप सिंह  बिसेन भी अवध की बेगम हज़रात महल की साहयता हेतु और अंग्रेज़ों के महलवारी टैक्सेशन के विरुद्ध 1857 के विद्रोह में जुड़े। 1858 में चांदा  की लड़ाई के दौरान कम उम्र में शहीद हुए ।भारत सरकार ने उनकी स्मृति में 17 दिसंबर 2009 को एक डाक टिकट जारी किया। 

16. कानपूर देहात के  काहिंजारी के ज़मींदार दरियाव चंद्र गौड़  जिन्होंने  अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया था और अंग्रेजों के स्थानीय प्रशासन भवन को लूट लिया। राजा दरियाव को फांसी देने के बाद, अंग्रेजों ने उनके कई सहयोगियों को सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका दिया और उनके किले को ध्वस्त कर दिया।  

17. जहां सैन्य विद्रोह और अवध पूर्वांचल की क्रान्ति में क्षत्रियो की मुख्य भूमिका वेल documented है , वहीँ पश्चिम यूपी के किसान विद्रोह में भी  क्षत्रियो ने भाग लिया था ।  विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार एरिक स्टोक्स अपनी किताब The Peasant And The Raj में सहारनपुर के पुंडीर राजपूतों के विद्रोह पर लिखते हैं, तो वहीँ वे अपनी किताब डी में हापुड़ के तोमर राजपूतो और गौतम बुद्धनगर के गहलोत राजपूतो के विद्रोह पर भी प्रकाश डालते हैं। 

18. इसी प्रकार  इतिहासकार A U सिद्दीकी अपनी किताब Indian Freedom Movement in Princely States of Vindhya प्रदेश में 1812 में हुए  सथनी और इतर के युद्ध का वर्णन करते हैं जहां सेंगर राजपूतों ने अंग्रेज़ों को हराया था।  इसी तरह विंन्ध्याचल में बघेलखण्ड के  ठाकुर रणमत सिंह बघेल और उनके सेनानायक दलथम्मन सिंह कलचुरी ने नागौद, विदिशा, चित्रकुट, नौगांव, केवटी की लड़ाइयों में  अंग्रेजों के लिए आतंक साबित हुए।

19. मार्च 1836 को, एक ब्रिटिश अधिकारी ने एक  भारतीय  महिला का अपहरण कर लिया, राव मधुकर शाह बुंदेला ने हस्तक्षेप। इस पर मधुकर बुंदेला ने महिला को मुक्त कराने के लिए विद्रोह कर दिया। उन्हें 1843 में पकड़ लिया गया और फाँसी दे दी गई। 

20. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से करीब 33 साल पहले  24 जुलाई 1824 को नरसिंहगढ़ (मध्य प्रदेश की एक छोटी रियासत) के कुंवर चैन सिंह परमार और उनके 41 साथियों ने सीहोर में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। कुँवर चैनसिंह परमार की समाधियाँ सीहोर-इंदौर रोड पर लोटिया नदी के टट पर दशहरा वाला मैदान में 2 किमी दूर हैं। ये समाधियाँ नरसिंह गढ़ एस्टेट के देशभक्त चैनसिंह और ब्रिटिश  एजेंट श्री मेधांक के बीच ऐतिहासिक लड़ाई की याद दिलाती हैं।

21. मालवा में ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों को पुनः शुरू करने वाले अमझेरा के ठाकुर बख्तावर सिंह राठौड़ थे। 10 अक्टूबर 1857 को सरदारपुर और 16 अक्टूबर 1857 को मालपुर-गुजरी छावनियों पर बख्तावर सिंह राठौड़ ने हमला किया था, जिससे अंग्रेज़ों को पीछे हटना पड़ा था।  अंग्रेजों ने 10 फरवरी 1858 को इंदौर में एक नीम के पेड़ पर महाराणा बख्तावर सिंह फांसी दे दी। 

22. इसी तरह 1857 में दमोह के निकट भानपुरा के राजा  मर्दन सिंह सिसोदिया  ने झाँसी की रानी की मदद के लिए ललितपुर में अपनी फ़ौज इकट्ठा की और रेलवे स्टेशन पर कब्ज़ा करके वहां तैनात ब्रिटिश ऑफिसर्स को बंदी बना दिया था।  उन्होंने चंदेरी, बानपुर, ललितपुर जैसे इलाको में ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध अभियान छेड़ा।  1858 में नरहट घाटी में गिरफ्तार हुए और उन्हें अंत में मथुरा जेल भेजा गया जहां 1879 में उनकी मृत्यु हुई।  

23. इसी कड़ी में ओडिशा के चौहान राजपूतों द्वारा शासित सम्बलपुर के वीर सुरेंद्र साई चौहान ने 1827 में ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध डॉक्ट्रिन ऑफ़ लाप्स के कारण विद्रोह शुरू किया जो 1862 तक चलता रहा है।  झारखंड में बरकागढ़ रियासत जिसकी राजधानी वर्तमान रांची थी, उसके राजा ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव नागवंशी ने 1855 में विद्रोह शुरू किया जो 1858 में तब अंत हुआए जब ठाकुर विश्वनाथ नागवंशी को अंग्रेज़ों ने पकड़ फांसी दी।  

हैदराबाद के समीप निज़ामाबाद के कौलस किले के राजा दीप सिंह गौड़ ने भी 1857 में अंग्रेज़ो से युद्ध लड़ा और अंत में अंडमान भेज दिए गए।

24. इन्हीं कारणों से अंग्रेजों ने द्वितीय विश्व युद्ध के फैलने तक, विद्रोह की आशंका के चलते लगभग 90 वर्षों तक ब्रिटिश भारतीय सेना में स्थानीय राजपूतों को काम पर रखना बंद कर दिया।  स्पष्ट तथ्यों के उपलब्ध होने के बावजूद भी यदि कोई इतना बड़ा इतिहासकार विरोधाभासी बात करे तो निः संदेह उसकी नियत में ही खोट है। असल में अंग्रेज़ो द्वारा स्थापित कांग्रेस और आरएसएस  जैसे सेफ्टी वाल्व संगठनो  का उद्देश्य देश की आज़ादी से ज़्यादा , शहरी धनाढ्य जातियों के लिए सत्ता प्राप्त करना था। 

25. रियासतों में भी  ब्रिटिश हस्तक्षेप और आम जन पर प्रताड़नाओं के खिलाफ कई क्षत्रिय राजा और सामंत भी बागी हुए थे।   चाहे अमरकोट के  राणा रतन सिंह सोढा या पठानकोट के वज़ीर राम सिंह पठानिया, मारवाड़ के खुशाल सिंह चम्पावत और राव गोपाल सिंह खारवा या सीकर के शेखावत कायमखानी विद्रोही हों – ऐसे कई उदहारण मिलते हैं।  चूँकि  रियासती क्षत्रिय अंग्रेज़ो के अधीन नहीं थे, वहां इन अपवादों को छोड़ किसी बड़े  विद्रोह का प्रश्न ही नहीं उठता था।

किन्तु ब्रिटिश इंडिया के क्षत्रियो ने किसान विद्रोह, HSRA , और आज़ाद हिन्द फ़ौज में तो योगदान दिया ही बल्कि शहरी सवर्ण जातियों के संगठन – कांग्रेस और आरएसएस को गाँवों तक पहुँचाने में  भी क्षत्रियो का धन और पसीना लगा।

26. शहरी सवर्णो की पार्टी कांग्रेस को गाँव की किसान कारीगर जातियों तक पहुँचाने वालों में  बिहार विभूति अनुराग नारायण सिंघजी थे जो  आधुनिक बिहार के संस्थापकों में से एक थे , शुभद्रा कुमारी चौहान भी थीं जो नागपुर सत्याग्रह में पुलिस द्वारा अरेस्ट होने वाली पहली महिला थीं, छत्तीसगढ़ के ठाकुर प्यारेलाल सिंह बघेल भी थे जिन्होंने सर्वप्रथम 1916  में  छत्तीसगढ़ के  कॉटन मिल मज़दूरों का मुद्दा उठाया,1944 में  महासमुंद में किसान चावल सहकारी फैक्ट्री की स्थापना की और 1945 में प्यारेलाल ने श्रमिकों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए राज्य के सभी जिलों में छत्तीसगढ़ बुनकर सहकारी समितियों की स्थापना की। 1946 में ठाकुर प्यारेलाल जी ने छत्तीसगढ़ के सभी गाँवों में कांग्रेस पार्टियों की स्थापना की।

27. इसी क्रम में हिमाचल प्रजा मंडल और आधुनिक हिमाचल के संस्थापक डॉक्टर यशवंत सिंह परमार और Quint India Movement में शहीद हुए अलाहाबाद यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी लाल पद्माधार सिंह बघेल भी थे। 

28. जहां हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के पंडित रामप्रसाद बिस्मिल अर्थात रामप्रसाद सिंह तोमर, महावीर सिंह राठौड़ और रोशन सिंह निकुम्भ प्रसिद्द क्रन्तिकारी थे, तो वहीँ कॉमरेड अर्जुन सिंह भदौड़िया ने चम्बल में लाल सेना का निर्माण कर अंग्रेज़ों के विरुद्ध किसानो और मज़दूरों के हित में गुरिल्ला युद्ध शुरू किया।  कमांडर साहब कहे जाने वाले कॉमरेड अर्जुन सिंह भदौड़िया ने आज़ादी के बाद भी किसान और मज़दूरों के हितों को देखते हुए अपने संगठन को कांग्रेस से अलग हुई सोशलिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया से जोड़ दिया।

29. इसी तरह कालांकर राजपरिवार के कुंवर  ब्रजेश सिंह बिसेन ने 1928  में लेफ्टिस्ट क्रांतिकारी M N Roy के संपर्क में आने पर  भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन की। उनके परदादा लालप्रताप सिंह बिसेन 1857 के विद्रोह में शहीद हुए और दादा राजा रामपाल सिंह बिसेन कांग्रेस के सदस्य थे।  कम्युनिस्ट क्रांतिकारी के तौर पर वे उन  भारतीय विद्यार्थियों में से थे जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम  और विदेशी anti imperialist regimes के बीच संवाद स्थापित करने में शामिल हुए।  

30. पेशावर में पश्तूनों पर गोलियां चलाने वाले ब्रिटिश आदेश की अवज्ञा कर अपनी बटालियन को ऐसा करने से रोकने वाले कॉमरेड चंद्र सिंघजी गढ़वाली भी पहाड़ी क्षत्रिये  ही तो थे। इसी तरह  सरदारसिंघजी रावजी राणा जिन्होंने 1905 में मैडम भिखाईजी कामा के साथ  इंडियन होम रूल सोसाइटी की  स्थापना की , वे भी काठियावाड़ के राजपूत ही थे।  प्रसिद्ध मार्क्सिस्ट इतिहासकार और स्वतंत्रता सेनानी  कुंवर मुहम्मद अशरफ भी हाथरस के मुस्लिम गहलोत राजपूत ही थे।  

31. इसी तरह सिंगापोर में आज़ाद हिन्द फ़ौज की provincial सरकार के असिस्टेंट सेक्रेटरी रहे बिक्रम सिंह सरोया भी होशिआरपुर के भुंगरनि जागीर के सरोया राजपूत ही थे।  आज़ाद हिन्द फ़ौज से जुड़े मशहूर नामों में  कप्तान अब्बास अली भी थे , जो खुर्जा बुलंदशहर के सोलंकी राजपूत थे और बाद में एक प्रसिद्ध समाजवादी नेता भी बने।  

32. हम वर्तमान के पाकिस्तान की भी बात करें , तो वहां भी प्रतिहार वंश के राय अहमद खान खर्राल, प्रसिद्ध कम्युनिस्ट मैथेमैटिशियन आलामा मशरिक़ी और यूनियनिस्ट पार्टी के संस्थापक मालिक ख़िज़्र हयात टिवाना के स्वतंत्र संग्राम में राजपूत योगदान को याद करना आवश्यक है।

33. जो लोग इतिहास के सही ज्ञाता हैं वे स्वीकारेंगे कि 1945 का  लाल किला ट्रायल एक ऐसा  ऐतिहासिक मोड़ था जिसने भारत को आखिरकार आज़ादी दिलवाई।  इस ट्रायल में आज़ाद हिन्द फ़ौज के तीन जनरल्स पर अंग्रेजी हुकूमत ने केस किया था।  इनमें से एक सुप्रसिद्ध अफसर  शाहनवाज़ खान थे , जो पाण्डववंशी जंजुआ राजपूत थे।  

34. विडंबना देखिये कि जो हज़ारों क्षत्रिय  अंग्रेज़ों से लड़े, वे अंततः या तो  युद्ध में मारे गए,या उन्हें क्रूरतम सज़ा दी गई चाहे फांसी पर लटकाना, तोपों से उड़ाना, जबकि  कांग्रेस और आरएसएस के बुद्धिजीवी  नेताओ को अंग्रेज़ों से सुविधाएं  । इन क्षत्रिय क्रांतिकारों के  परिवारों से संपत्ति और ज़मीनें छीन नॉन मर्शियल शहरी धनाढ्य वर्ग को दी गई क्योंकि इस वर्ग से अंग्रेज़ों को कोई क्रान्ति का ख़तरा नहीं था।  आज यही वर्ग उन क्षत्रिय बागियों और स्वतंत्रता सेनानियों  के अस्तित्व को नकारता है।   

35. ऐसा यह वर्ग इसलिए करता है ताकि क्षत्रिय समाज को मनोवैज्ञानिक तौर पर हतोत्साहित और शर्मसार किया जाय और इस तथ्य से ध्यान भटकाया जाय कि किस तरह इस वर्ग ने पहले अंग्रेज़ों और फिर कांग्रेस आरएसएस  कि मदद से क्षत्रियो का धन, उनकी ज़मीनें, उनके धरोहर छीनकर उन्हें  आर्थिक, सामाजिक, और राजनैतिक तौर पर ख़त्म किया। 

36. अक्सर मुखिया और अख्तर जैसे सतही ज्ञान वाले  बुद्धिजीवी जिस शहरी धनाढ्य वर्ग से आते हैं , वह वर्ग क्षत्रियों को गुलाम प्रचारित  करने के लिए उन स्टेटस  की और इशारा करते हैं जिनके राजवंश क्षत्रिय थे। किन्तु इनके  कुतर्क के अनुसार जाएँ  तो शिवाजी के वंशज सतारा और कोल्हापुर राजपरिवार, इंदौर के होल्कर और बड़ोदा के गायकवाड़ राजपरिवार और परिणामस्वरूप समस्त मराठा समाज भी गुलाम थे।  इसी तरह पटियाला, कपूरथला, जींद के सिख राजपरिवार और परिणामस्वरूप इन स्टेटस में रहने वाले सभी सिख भी गुलाम हुए।  

किन्तु क्या यह कहना सही होगा ? बिलकुल नहीं। इन सभी स्टेटस के खुदके ध्वज, खुदकी फ़ौज, खुदका प्रशासन, खुदकी पुलिस, कचहरी, स्कुल, अस्पताल और रेलवे व्यवस्था थी  अर्थात ये ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा ही  नहीं थे।   

37. देशी रियासतों का भ्रामक बहाना देकर क्षत्रियो के योगदान को नकारने वाला  यह शहरी सवर्ण यह भी छिपाता है कि कोलोनियल सिविल सर्विसेस, कोलोनियल जुडिशियरी, कोलोनियल अर्थव्यवस्था और प्रशासनिक नौकरियों में भी स्वयं इन्हीं का वर्चस्व था।   अर्थात अंग्रेज़ों की नौकरी करने और उनसे आर्थिक एवं राजनैतिक फायदा उठाने में सबसे आगे यही थे। यही वर्ग अंग्रेजी हुकूमत में बड़े नौकरशाह, बड़े बैरिस्टर  से लेकर बड़े बड़े उद्योगपति बने एवं अंग्रेज़ो के तुरंत जाने के बाद शासक वर्ग बन गए। यह इस बात को भी छिपाते हैं कि इसी वर्ग ने 1857 के बाद अंग्रेज़ों की मदद से देशी रियासतों के प्रशासन में भी अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया था।  

क्षत्रिय समाज एवं सहयोगी समाजों के लिए इस समय ज़रूरी है कि वे इस  षड़यंत्र को समझे अथवा अपने समाज को ऐसे मौके पर जगा कर सही राह दिखाए।

A S Deora की कलम से


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