पेशवावादी आरएसएस और गुरु गोलवलकर के क्षत्रियों के प्रति विचार


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना से लेकर आज सत्ता में निर्णायक भूमिका में होने तक किस जाति-समुदाय की प्रभुता का दर्शन और प्रदर्शन संघ में सबसे ज़्यादा मिलता है? क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दुओं के सभी वर्णों व जातियों को एक जैसा मान-सम्मान देता है? क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर किसी एक जाति-विशेष की प्रधानता ,बाहुल्य और श्रेष्ठता का छिपा हुआ एजेंडा काम करता है ? यह सब नुक्ते गहन चिन्तन का विषय हैं।

पूर्व के कई उदाहरणों से ज़ाहिर है कि आरएसएस दलित ,आदिवासी समुदायों के प्रति हिकारत का भाव रखता है; लेकिन इन दमित समुदायों अलावा भी कुछ जाति ,पंथ ,समुदाय और वर्ण वर्ग उनके नफरती रडार पर हैं ,हालाँकि संघ अपने सांस्कृतिक और सियासी एजेंडा के चलते इसे कभी जाहिर नहीं करता। लेकिन यदा कदा इनके मन की बातें बाहर आ ही जाती हैं। उदाहरण के लिए, जैसे भारत की दुर्दशा के लिये सम्राट अशोक और तथागत गौतम बुद्ध की अहिंसा की नीति को ज़िम्मेदार ठहराना,क्योंकि संघ को दोषारोपण (ब्लेम गेम) के लिये आसान शिकार की हमेशा जरुरत होती है.

देश की इस दशा के लिये संघ की वैचारिकी, धार्मिक कट्टरता व सामाजिक व्यवस्था के उनके मॉडल पर कोई अंगुली उठाये ,इससे पहले वे दूसरों पर अंगुली उठा देते है; जिस फेहरिस्त में कभी बुद्ध ,कभी महावीर तो कभी अशोक, फिर मुगलों और अंततः अंग्रेजों पर दोष मढ़ना आता है लेकिन खुद कभी देश के लिए दी कुर्बानी में अपना योगदान नहीं गिनवा पाते और न ही देश में सांप्रदायिकता की आग भड़काने की ज़िम्मेदारी लेते हैं। कई बार तो पीड़ित समुदायों को ही उनकी पीड़ा के लिये उत्तरदायी बताने से भी नहीं चूकते। मूलतः संघ के लिए देश के हर नकारात्मक कार्य के लिये कोई और जवाबदेह और ज़िम्मेदार है, वे नहीं .

आरएसएस के द्वितीय* सुप्रीमो गुरु गोलवलकर के ‘बंच ऑफ थॉटस’ में क्षत्रिय समुदाय और क्षात्र धर्म को लेकर उनके विवादस्पद विचार संयोजित हैं। बड़ी संख्या में क्षत्रिय स्वयंसेवक संघ की सेवा में संलग्न है, जिनको यह गलतफहमी है कि वे आरएसएस में धर्म रक्षार्थ अपना धार्मिक और सामाजिक दायित्व निर्वहन करने के लिये कटिबद्ध हो कर काम कर रहे हैं; लेकिन क्षत्रियों के बलिदान और युद्धों में आत्मोत्सर्ग और निडर होकर मृत्यु को वरण कर लेने वाले क्षात्र धर्म को लेकर गुरू गोलवलकर अपने ‘विचार नवनीत’ में कुछ ऐसा लिखते हैं, जो किसी भी सजग पाठक को अखर सकता है।

गुरु गोलवलकर लिखते हैं –“राजपूतों ने पराक्रम और आत्म बलिदान के इन महान कार्यों द्वारा हमारे इतिहास में चकाचौंध तथा विस्मयपूर्ण श्रद्धा उत्पन्न करने वाला एक पृष्ठ लिख दिया है। अनुपम वीरता के ऐसे ज्वलंत क्षण, मृत्यु से खिलवाड़ करने की ऐसी उल्लासपूर्ण वृति विश्व के इतिहास में दुर्लभ है। यह ठीक ही है कि हम ऐसी आत्माओं के विषय में अभिमान और आदर की भावना रखें ,परन्तु यह सत्य है कि ये वीर रणक्षेत्र में मृत्यु का एकमात्र विचार लेकर घुसे थे, विजय की इच्छा लेकर नहीं; वे केवल वीरतापूर्ण मृत्यु प्राप्त करने के विचार से प्रेरित थे।” ( विचार नवनीत, पृष्ठ -284,285 )

पता नहीं संघ प्रमुख गोलवलकर इस निष्कर्ष पर किस आधार पर पहुंचे कि ‘राजपूत वीर रणक्षेत्र में सिर्फ मृत्यु का एकमात्र विचार लेकर घुसे थे, न कि विजय की इच्छा लेकर’। यह कहना किसी की शहादत का कितना बड़ा अपमान है कि वे सिर्फ मरने के विचार से प्रेरित थे! तब उस इतिहास के क्या मायने हैं जो उनको मातृभूमि की रक्षार्थ युद्ध में बलिदान देने वाले के रूप में हमारे सामने लाता है ?

ऐसा नहीं है कि गुरू गोलवलकर क्षत्रियों पर यह टिप्पणी संयोगवश या भूल वश कर देते हैं क्योंकि वे लगभग ढाई पृष्ठों पर इस बात को बार-बार दोहराते हैं कि राजपूत युद्धों में सिर्फ मरने के लिये जाते थे। जीवन के प्रति ऐसी निराशा और मृत्यु को लेकर उल्लास किसी भी समुदाय का जीवन मूल्य तो नहीं हो सकता है, लेकिन गोलवलकर बार-बार वही दोहराकर यही प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं।

आगे वे लिखते है- “जब युद्ध का आह्वान होता था ,तब राजपूत योद्धा इसी विश्वास से अनुप्राणित हो प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु की तनिक भी चिंता न करते हुये शत्रु दल पर धावा बोल देते थे। जैसी इच्छा ,वैसा ही परिणाम! यदि विजय की इच्छा सर्वोपरि है तो विजय प्राप्त होती है, जो केवल मृत्यु की कामना करता है , उसे अवश्य मृत्यु मिलती है। जो केवल मृत्यु की आकांक्षा करता है, उसे यदि हम अमृत-कुंड में भी डाल दें, तो वह अवश्य ही डूब कर मर जायेगा। उसे कोई नहीं बचा सकता।” ( विचार नवनीत ,पृष्ठ – 285 )

गोलवलकर यहीं नहीं रुकते, वे तो क्षत्रियों के शौर्य की गौरव गाथाओं को ‘दुखद अध्याय’ तक बता देते है – “राजपूतों का बलिदान निसंदेह रीति से असाधारण पराक्रम और स्वाभिमानी तथा निडर प्रवृति का परिचायक है परन्तु साथ ही साथ, वह एक गलत और आत्मघाती आकांक्षा का प्रतीक भी है। वह हमारे भारतीय शौर्य की गाथाओं का एक स्मरणीय, परन्तु दुखद अध्याय है।” ( विचार नवनीत ,पृष्ठ – 285 )

संघ के शिरोमणि विचारक गोलवलकर तो क्षात्र धर्म की आत्मबलिदान की धारणा को भी गलत कहने से नहीं चूकते और उसे एक प्रकार की दुर्बलता तक की संज्ञा दे देते हैं और ‘सामूहिक क्रोधावेश से भर जाना तथा उसके बोझ से नष्ट हो जाना’ जैसी तोहमतें भी मढ़ते हैं और यह भी कह देते हैं कि यह हमारा आदर्श नहीं हो सकता है। गोलवाकर द्वारा व्यक्त और भी कईं ऐसी बातें हैं जो सम्मानजनक तो नहीं ही कही जा सकती हैं। बेहतर है कि जागरूकता के लिए गोलवलकर के शब्दों में ही इन्हें पढ़ लिया जाये।

संघ के द्वितीय सरसंघ चालक माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य गुरुजी गोलवलकर अपनी बहुचर्चित किताब में लिखते है –“क्षात्र धर्म की एक गलत धारणा के ही कारण इन वीरों ने बलिदान की आकांक्षा लेकर स्वयं को नष्ट कर दिया। यह भी एक प्रकार की दुर्बलता है। परिस्थितियों की मार न सह सकने के कारण सामूहिक रूप से क्रोधावेश में भर जाना और उसके बोझ से नष्ट हो जाना हमारा आदर्श नहीं हो सकता। इस प्रकार के भावुकतापूर्ण व्यवहार पर स्वाभिमान करने वाले वर्ग में वैसी शांति और स्थिर संकल्पशक्ति नहीं हो सकती, जो परिस्थितियों की किंकर्तव्यविमूढ़ करने वाली कशमकश में भी अनुदिग्न* बनी रहे।” ( विचार नवनीत ,पृष्ठ – 285)

गोलवलकर के विचारों को थोड़ा और देखेते हैं तो आगे उनका लिखा मिलता है–“एक प्रतिक्रियात्मक मस्तिष्क, जो छोटा सा आघात होने पर भी संतुलन खो बैठता है, निकृष्ट कोटि का होता है। एक पशु, जिसमें तर्क करने की शक्ति नहीं है, केवल प्रतिक्रियात्मक जीवन व्यतीत करता है, उसमें शांतिपूर्वक सोचने और कार्य करने की शक्ति नहीं होती….एक निर्बुद्धि प्राणी दुर्बल प्रतिक्रिया व्यक्त कर स्वयं को ही नष्ट कर लेता है। मरना और मारना समझदार व्यक्ति के लिये कभी भी आदर्श नहीं हो सकता है।” ( विचार नवनीत ,पृष्ठ -286 )

गुरु गोलवलकर की ‘विचार नवनीत’ में क्षत्रियों व उनके क्षात्र धर्म के प्रति उनके यह विचार स्पष्ट रूप में प्रकट हैं। बरसों से यह किताब पढ़ी-पढाई जाती है, संघ के प्रकाशन इसे छापते हैं और संघ कार्यालयों में स्थित वस्तुभंडारों में यह सुशोभित रहती है, संघ के सार्वजनिक कार्यक्रमों में और देश भर के पुस्तक मेलों के संघ के स्टालों पर यह धड़ल्ले से बिकती है मगर सोचने विचारने का विषय यह है कि क्या आरएसएस के क्षत्रिय स्वयंसेवक इस बारे में जानते हैं ? अगर नहीं जानते हैं तो उनको ज़रूर इस बारे में जानना चाहिए और संघ में अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करना चाहिए।

 

 

 

 

 


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