Cinematic Caricaturing of Kshatriyas
- Cinema: A Tool of Mass Propaganda by the Rich & Powerful
Aldous Huxley लिखते हैं “”दुष्प्रचार करने वालों का उद्देश्य सर्व समाज को यह भुला देना होता है कि विशेष समुदाय के लोग भी मानव समाज का ही हिस्सा हैं“।
इसी तर्ज पर कुख्यात Nazi नेता Joseph Goebbels ने जर्मन फिल्म इंडस्ट्री के माध्यम से सभी germans – यहां तक की बच्चों, बूढ़ों, महिलाओं के दिल दिमाग में इस कदर यहूदियों के प्रति नफरत भरी कि पूरी जर्मन जनता अपने ही दोस्तों, पड़ोसियों के नरसंहार के कट्टर समर्थक हो गई।
साधारणतः फिल्म निर्माण पैसे और पावर बिना असंभव है। जिसके पास पावर और पैसा है, वही फिल्में बनाते हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि विश्व भर में फिल्म निर्माण के ज़रिए असली शासक शोषक वर्ग अपना प्रचार तो करता है ही बल्कि अन्य समाजों को अत्याचारी दिखाकर अपनी अघोषित तानाशाही से ध्यान भटकाता है ।
ऐसे में जो लोग यह कहते हैं कि फिल्मों का उद्देश्य केवल Entertainment है, वे यह छिपाते हैं कि फिल्मों के ज़रिए mass behaviour, public perception और सरकारी पॉलिसियों पर नियंत्रण करना आम बात है।
1. Why Target Kshatriya community?
हमारे देश भारत में भी इसी उद्देश्य से Bollywood में मुस्लिम समाज और क्षत्रिय समाज के विरुद्ध फिल्मी दुष्प्रचार कई दशकों से चलाया जा रहा है। किंतु जहां दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी ब्राह्मणों के पक्ष में विरोध करते है, तो वहीं लिबरल लेफ्टिस्ट बुद्धिजीवी मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध फिल्मी ज़हर का ज़ोरदार खंडन करते है। मगर क्षत्रियों के सिनेमाई दुष्प्रचार के विरुद्ध कोई बौद्धिक वर्ग बोलता नहीं दिखता ।
ऐसा शायद इसलिए क्योंकि जहां इन समुदायों के विरुद्ध दुष्प्रचार सांप्रदायिक विचारधारा से जुड़ा है , जबकि क्षत्रियों के गलत सिनेमाई चित्रण की जड़ उत्तर भारत की 3-4 ताकतवर जातियों की जातिगत कुंठा है।
इनके दुष्प्रचार का उद्देश्य क्षत्रिय युवाओं का मनोबल तोड़ना , उन्हें बाकी समाजों से alienate करना , क्षत्रियों को सरकारी नीतियों से दरकिनार करना और सिविल सोसाइटी में उनके प्रति पूर्वाग्रह स्थापित करना है ।
आइए जानते हैं, कुछ उदाहरणों से।
2. बॉलीवुड का ठाकुर एक सार्वभौमिक उत्पीड़क (universal oppressor)
- 1981 में बेहमई नरसंहार हुआ, जिसमें 20 बेगुनाह लोग मारे गय, जिनमें 17 ठाकुर, एक मुस्लिम, एक sc और एक पीड़ित obc वर्ग से थे । 1994 में रिलीज़ हुई, शेखर कपूर की फिल्म bandit queen ने इस कांड को 22 अत्याचारी ठाकुरों के खिलाफ न्याय के रूप में पेश किया, जिसका पब्लिक परसेप्शन पर इतना गहन असर पड़ा कि आज तक इस नरसंहार के पीड़ितों को न्याय नहीं मिला।
- हालांकि , क्षत्रियों के विरुद्ध पहली हिंदी फिल्म धर्मेंद्र दियोल की “राजपूत” थी जो 1982 में रिलीज हुई। बॉलीवुड में जट महिमामंडन भी 1983 में धर्मेंद्र दियोल और अजीत दियोल द्वारा निर्मित “पुत्त जट्टन दे” से शुरू हुआ । अतः हिंदी सिनेमा के दोनों ट्रेंड , जट ग्लोरिफिकेशन और क्षत्रिय विलिफिकेशन, इसी दौर में एक ही लॉबी द्वारा शुरू किए गए।
- 1985 में जाट नेता विजय पुनिया और धर्मेंद्र दियोल द्वारा बनाई गई पिक्चर “गुलामी” रिलीज़ हुई जिसमें जाट नायक और क्षत्रिय खलनायक की पटकथा लिखी गई।
- वर्तमान राजनैतिक प्रचार प्रसार में जाट समाज के हितों के “पक्ष” में उन्हें unconditionally “किसान” प्रोजेक्ट करना और क्षत्रिय समाज के हितों को “दबाने” के लिए उन्हें “सामंत” का तमगा पहनाकर खारिज करना इसी पिक्चर से प्रचलित हुआ।
- यह कोई इत्तेफाक नहीं कि जिस दशक में यह फिल्म बनी, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, अर्जुन सिंह, सूर्य नारायण सिंह जैसे क्षत्रियों के नेतृत्व में सामाजिक न्याय की राजनीति चरम पर थी । निःसंदेह इस फिल्म को तिलमिलाई शासक व्यवस्था की प्रतिक्रिया मान सकते हैं।
- क्या भरतपुर,धौलपुर, पटियाला के राजा और चौधरी सामंत नहीं थे? आप खुद सोचिए कि क्या कभी तसीमो किसान आंदोलन और निमुचना किसान आंदोलन पर फिल्म बनाई जाएगी जहां आंदोलनकारी किसान क्षत्रिय समाज से थे।
- इस फिल्म के बाद सिनेमाई ट्रेंड बना जिसमें 1990 से लेकर अब तक दर्जनों फिल्में आई जहां अमरीश पुरी, रंजीत बेदी, के के मेनन के किरदारों द्वारा क्षत्रिय समाज पर बिगड़ैल अमीरज़ादे, बलात्कारी, अपराधी, अत्याचारी, शोषक का Stereotype थोपा गया।
- 2007 में “Manorama Six Feet Under” आई जिसमें पुनः जाट नायक और राजपूत rapist का नैरेटिव चलाया गया। फिल्म के डायरेक्टर नवदीप सिंह, एक्टर Abhay Deol और actress Gul Panag एक ही समाज से हैं।
- रणदीप हुड्डा, माही गिल और जिमी शेरगिल की फिल्म साहेब बीवी और गैंगस्टर भी क्षत्रियों की ऐसी stereotyping का उदाहरण है।
- 2008 में शौर्य नामक काल्पनिक पिक्चर रिलीज हुई, जहां दोनों मुख्य villains राजपूत आर्मी ऑफिसर्स होते हैं और हीरो जाट। खुद सोचिए कि क्या कभी ये जनरल सगत सिंहजी राठौड़,जनरल हनुत सिंह चंद्र सिंहजी गढ़वाली, Major Shaitan Singh Bhati को लेकर फिल्म बनाएंगे? “बिलकुल नहीं”।
- 2009 में एक फिल्म आई थी “गुलाल” जहां राजस्थान के राजपूत समाज का अलगाववादी चित्रण किया गया, जबकि किसी राजस्थानी क्षत्रिय नेता ने कभी अपनी जाति के लिए स्वतंत्र राजपूतलैंड की मांग नहीं रखी। अजीब विडंबना तो यह है कि गुलाल फिल्म के लेखक राज सिंह चौधरी जिस समाज से आते हैं, उस समाज के बड़े नेताओं और उस जाति के भरतपुर राजा ने कई बार स्वतंत्र जाटलैंड की मांग रखी थी ।
- 2019 में फिल्म Article 15 आई। यह फिल्म कथित तौर पर 2014 के बदायूं गैंगरेप पर आधारित थी, जहां फिल्म के लेखक गौरव जाट, अपराधी की जाति ठाकुर बताकर पेश करते हैं जबकि सभी सात आरोपी पुलिसकर्मी अहीर समाज से थे, जो आजकल यादव उपनाम लगाते हैं। क्या यह लेखक का सुनियोजित षड्यंत्र नहीं था?
3. OTT Platforms में भी राजपूत केवल विलन
- 2020 में Hotstar पर Aarya आती है जहां ऐसा दिखाया गया मानो राजस्थान में बड़े ड्रग माफिआ राजपूत हो, जबकि ड्रग्स माफिआ की सच्चाई क्या है यह सामान्य ज्ञान है।
- 2020 में सुदीप शर्मा द्वारा बनाई प्रसिद्ध वेब सीरीज “पातळ लोक” आई जिसे अनुष्का शर्मा ने produce किया। इसमें सूक्ष्म तरीके से ठाकुरों द्वारा मिडिया में ठाकुरवाद और nepotism का मिथक गढ़ा गया, जबकि भारतीय मिडिया में किसका प्रभुत्व है, यह छीपा नहीं।
- मई 2023 में सुधीर मिश्रा और अनुभव सिन्हा की फिल्म “अफवाह” रिलीज़ हुई जिसमें दिखाया गया कि राजस्थान में राजपूत एवं पूर्व राजपरिवार मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक दंगे भड़का रहे हैं। जो राजस्थान की राजनीति जानते हैं वो यह भी जानते होंगे कि राजस्थान में हिन्दू-मुस्लिम दंगे मिश्रा और सिन्हा के जातिबंधुओं की देन है, नाकी यहां हज़ारों सालों तक राज करने वाले क्षत्रियों की । क्या ये कभी करौली दंगों में अल्पसंख्यकों की रक्षा करनी वाली मधुलिका जादौन पर फिल्म बनाएंगे, जिन्होंने कहा कि “हम राजपूत हैं, हमारा धर्म है सबकी रक्षा करना।” बिलकुल नहीं।
- 2021 में अरण्यक आई, जहां पर पुनः villains को मन्हास और भाटी जैसे राजपूत उपनाम दिए जाते हैं और हीरो को मलिक।दिखने में ऐसे हथकंडे छोटे लगते हों, किन्तु इस तरह वर्षों से जाट, ब्राह्मण खत्री एवं कायस्थ elite वर्ग ने पूरे क्षत्रिय समाज को सर्वसमाज में एक Universal Oppressor के तौर पर स्थापित किया है।
- इसी क्रम में फिल्म निर्माता नीरज पांडे ने 2022 में खाकी सिरीज़ बनाई जहां बिहार में कुर्मियों द्वारा भूमिहार शोषकों से संघर्ष की हकीकत को छिपा राजपूत बनाम कुर्मी की पटकथा गढ़ी गई।।
नोट कीजिए, जब इन समुदायों के प्रसिद्ध व्यक्तियों पर फिल्में बनती हैं तब उन फिल्मों के बहाने इनके समाजों का संवेदनशील चित्रण भी होता है, किंतु जब किसी प्रसिद्ध क्षत्रिय व्यक्ति पर फिल्म बनती है – जैसे महेंद्र सिंह धोनी, ध्यानचंद बैस, जसवंत सिंह रावत, मिल्खा सिंह राठौड़ – तो उनमें इनकी क्षत्रिय पहचान ही विलुप्त कर दी जाती है। फोगाट बहनों पर दंगल बन सकती है, किन्तु अलका तोमर पर क्या कोई बयोपिक बन सकती है?
मगर जैसे कहते हैं ना ,कि पिक्चर अभी बाकी है ,दोस्त !!
4. Historical Fiction: An Excuse to Denigrate
1990 में आरएसएस के राजनैतिक उत्थान के बाद से ही हिंदी सिनेमा में सक्रिय हुए मराठी ब्राह्मणों ने फिल्मों की एक नई शैली में फंडिंग शुरू की, जिसे आम तौर पर फिक्शनल हिस्ट्री कहते हैं। अर्थात इतिहास विकृत कर narrative गढ़ना।
गुरु गोलवलकर के समय से ही पेशवाओं को भारत का अतुल्य अपराजयी योद्धा और शासक स्थापित करने की कोशिश रही, जिसके लिए देश के सबसे बड़े और विविध सैन्य समाज , राजपूत समाज, को कमतर, कायर, कमज़ोर और अयोग्य दिखाने का निरंतर प्रयास रहा है । गुरु गोलवलकर के विचार नवनीत और गिरीश शाहाने का स्क्रॉल आर्टिकल इसका सबूत भी है।
- इसी तर्ज़ पर आशुतोष गोवारिकर ने 2008 में जोधा अकबर दिखाकर यह स्थापित करने का प्रयास किया कि क्षत्रिय तो केवल मुगलों को बेटियां देते थे। यदि गोवारिकर का उद्देश्य secularism होता तो क्या वे डेक्कन सुलतान और मराठा ब्राह्मणों के विवाह पर फिल्म नहीं बनाते?
- फिर गोवारिकर ने 2019 में पानीपत फिल्म भी बनाई जिसमें अपनी जाति के पेशवाओ को बढ़ा चढ़ाकर दिखाया और उनकी हार के लिए किसी अरदक सिंह नामक काल्पनिक किरदार पर दोष मढ़ दिया।
- 2010 में फिल्म वीर आई जिसमें राजस्थान में किसानों को लूटने वाले पिंडारियों का महिमा मंडन तो था ही बल्कि स्थानीय राजपूत समाज को गद्दार बोलते हुए डायलॉग भी थे।
- 2020 में आई ओम राउत की तानाजी भी कुछ ऐसा ही प्रयास करती है।।
- भंसाली की पद्मावत और द्विवेदी की पृथ्वीराज का उद्देश्य क्षत्रियों के गौरवमई इतिहास का महिमामंडन नहीं, बल्कि हिन्दू मुस्लिम राजनीति के ज़रिये क्षत्रिय इतिहास को अनावश्यक विवादों में घसीटना था।
जिस तरह फिल्मों के ज़रिए उत्तर भारत की डोमिनेंट जातियों ने क्षत्रियों को Universal Oppressor स्थापित किया उसी प्रकार मराठी ब्राह्मणों ने फिल्मों के माध्यम से क्षत्रियों को कायर, गद्दार और अयोग्य हारे हुए योद्धा स्थापित करने का कुत्सित प्रयास किया।
Bollywood में जहां एक तरफ खुला ब्राह्मणवाद और जाटवाद स्थापित है, वहां क्षत्रिय कलाकारों का सार्वजनिक प्लेटफॉर्म से अपने समाज पर शर्म व्यक्त करना आम बात है।
आम तौर पर फिल्म इंडस्ट्री को लिबरल और प्रोग्रेसिव माना जाता है, किंतु यदि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का लिबरल और प्रोग्रेसिव make up, उतारें तो सांप्रदायिक घृणा और जातीय ईर्ष्या स्पष्ट दिखेगी।
इसका समाधान यही है कि दुष्प्रचार का संवैधानिक विरोध हो, क्षत्रियों के हित में फिल्मों में इन्वेस्टमेंट हो, युवाओं को Film making का quality प्रशिक्षण दिलवाएं। ।