क्षत्रिय विरोधी दुष्प्रचार और क्षत्रिय एलिट की उदासीनता


आज अगर कोई 1880 से 1947 तक राजस्थान का राजनीतिक और आर्थिक इतिहास पढ़ने बैठे तो कोई अपवाद दृष्टांत ही होगा जिसमे राजपूत शासन व्यवस्था की तारीफ की गई हो। प्रजामंडल और किसान आंदोलन वाले हिस्से में राजपूत राजाओं और जागीरदारों की तुलना यूरोप के फ्यूडल एरिस्टोक्रेट्स से और कृषक की हालत serfdom के जाल में फसे हुए peasant से भी खस्ता बताई गई है। चाहे बृज किशोर शर्मा की Peasant Movements in Rajasthan हो, केएस सक्सेना की The Political Movements and Awakening in Rajasthan हो या राम पांडे की Peoples’ Movement in Rajasthan इन सभी कृतियों में राजपूतों को एक तरफा विलेन दर्शाया गया है। बृजमोहन शर्मा जी तो यहां तक संकेत दे जाते हैं की जोधपुर के राजा इतने अत्याचारी थे की कहीं उनकी जमीन किसानों के हाथ ना लग जाए इसके चलते वे पाकिस्तान में शामिल होने वाले थे।

कोई इतिहास में रुचि रखने वाला न्यूट्रल व्यक्ति अगर इन सब सेकेंडरी सोर्सेज को पढ़ेगा तो जाहिर सी बात है वो इस उत्पीड़न का दोषी सीधा सीधा राजपूतों को ही बताएगा। उसका कसूर भी नहीं है क्योंकि राजपूतों ने कभी अपना पक्ष रखने में कोई दिलचस्पी ही नहीं दिखाई और ये तो तब जब आज 2023 चल रहा है और कौम पढ़ लिख गई है।

आज से लगभग 100 साल पहले सन् 1925 में जाट मिडल क्लास इंटेलिजेंसिया इतना एक्टिव हो चुका था जिसकी कल्पना हम नहीं कर सकते। चौधरी घासी राम, रतन सिंह, हरलाल सिंह, नेतराम सिंह ये सभी जाट बुद्धिजीवी उस वक्त भारत के प्रमुख राजनीतिक चिंतकों से संबंध स्थापित कर चुके थे तथा उनसे रेगुलर पत्र व्यवहार पर थे। यही नहीं इसमें उन्हें बाकी सवर्णों का भी समर्थन हासिल था चाहे बनिया वर्ग हो (चिड़ावा सेवा समिति, तरुण राजस्थान का रामनारायण चौधरी) या बामण (तारकेश्वर शर्मा, लादूराम जोशी) ।

जाटों की अगर कोई उस वक्त की मांगे पढ़ेगा तो उसे इस बात पर बेहद आश्चर्य होगा कि कैसे यह अनपढ़ किसानी कौम अपने अधिकारों को एक्सप्रेस करने में इतनी आर्टिकुलेट हो चुकी थी।
उन्हें अच्छे से मालूम था कि पुराना ऑर्डर अब ज्यादा समय तक टिकने वाला नहीं है। वे यह भी जानते थे की मॉडर्न सिस्टम में आपके वर्ग की संख्या सबसे बड़ा रोल प्ले करेगी। कोई अगर 1925 से 1940 तक शेखावाटी जाट किसान आंदोलन का अध्ययन करे तो वह यह पाएगा की उस वक्त के जाटों की पॉलिटिकल अवेयरनेस आज 21वी सदी के राजपूतों से ज्यादा विकसित हो चुकी थी।

इन सभी घटनाक्रमों से करीबन 50 साल पहले अजमेर में मेयो कॉलेज की स्थापना हुई थी जिसका लक्ष्य था राजकुमारों और जागीरदारों को आधुनिक शिक्षा प्रदान करवाना। अगर इस पढ़े लिखे रॉयल वर्ग में थोड़ी समझ होती तो यह 1920s में चल रहे विद्रोही करेंट को भांप कर अपनी कम्युनिटी के लिए एक्शन लेना शुरू कर सकता था। पर वो तो दूर की बात है ये वर्ग ब्राह्मण बनिया का double standard समझने में ही नाकाम रहा। इसलिए जहां मारवाड़ हितकरिणी सभा के सदस्य भी जहां ब्राह्मण बनिया थे वहीं जोधपुर दरबार के मुख्य कार्यकारी भी इसी वर्ग से थे। इसी तरह बलदेव राम मिर्धा जब तक देश आजाद नहीं हुआ तब तक दरबार का सेवक रहा और जोधपुर राज्य में DIG के पद पर रहा और जैसे ही नई सत्ता आई सामंतवाद का राग अलापना शुरू।

दूसरों पर हम चाहे जितना दोष मढ़ सकते हैं पर इसमें कोई दो राय नहीं की राजपूत आज अपनी इस खस्ताहाल कंडीशन के खुद जिम्मेदार है।

किसी समाज की सामाजिक राजनैतिक लड़ाई लड़ने में उस समाज के बुद्धिजीवी वर्ग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है ।पूरा समाज कभी यह लड़ाई नही लड़ता।जहां ब्राह्मण ,बनिया ही नही बल्कि ओबीसी एससी एसटी मुस्लिम में बुद्धिजीवी वर्ग है जो अपने समाज के हित अनुसार अपनी धाराएं भी बदल लेते हैं वहीं राजपूतों में यह वर्ग है ही नही तो सारा विमर्श इनका सिर्फ एमपी एमएलए कैसे बने वहीं तक सिमट के रह जाता है। एमपी एमएलए वाले विमर्श में जो राजपूतों को सहयोगी दिखते हैं राजपूत उनके साथ खड़े हो जाते हैं।ये तो बुद्धिजीवी वर्ग का कार्य होता है की समाज को जहां फायदा है उसे उस दिशा में ले जाए।

राजपूतों में जातीय विमर्श कभी नहीं रहा।जाति की बात करते ही राजपूत बुद्धिजीवी वर्ग सकुचाने लगता है।ऐसा लगता है जैसे उनसे कोई पाप करने को बोला जा रहा है । जिस देश में पूरा सामाजिक राजनैतिक विमर्श ही जाति के इर्द गिर्द घूमता हो वहां हम जातीय विमर्श से दूरी बना के रखेंगे तो इसका फल आम राजपूतों को ही भोगना होगा।राजपूत समाज का युवा वर्ग जातीय विमर्श हुकूमत करने के लिए नही करना चाहता ना ही किसी को तबाह करने के लिए ।वो यह विमर्श चाहता है अपने समाज की सुरक्षा के लिए ।राजपूतों ने लाखो एकड़ जमीन दान कर दी , यूपी और बिहार में पिछड़े के नाम पर मुलायम ,लालू को सीएम चंद्रशेखर जी ने राजपूतों के समर्थन से बनाया ।ओबीसी आरक्षण नौकरी में वी पी सिंह दे गए तो शिक्षण संस्थानों में अर्जुन सिंह । वीपी सिंह ने अंबेडकर को भारत रत्न दिया ।राजस्थान में जाटों को ओबीसी आरक्षण भैरो सिंह की पहल से मिला । बंदा बहादुर की वजह से पंजाब के जट्टो का उत्कर्ष हुआ।लेकिन बदले में राजपूतों को क्या मिला ? राजपूत समाज का व्यक्ति यदि किसी अपराध में शामिल हो तो बहुजन के नाम पर पूरे समाज को घेरा जाने लगता है ।राजपूतों ने चाहे दूसरो की कितनी ही मदद क्यों ना की हो पर उन्हे जहां हिंदूवादी पक्ष इस्तेमाल की वस्तु समझता है वहीं दूसरे शत्रु समझते हैं जिनका मान मर्दन जरूरी है।और यह सब हुआ है पढ़े लिखे राजपूतों की चुप्पी से ।

यह चुप्पी हमें राजाओं से विरासत में मिली। आज तक यही समझ नहीं आया कि राजपूत राजाओं ने अपने वंश भाइयों को शिक्षित बना प्रशासन में भागीदारी दिलवाने की बजाय उस ब्राह्मण बनिया वर्ग को ही क्यों शक्तिशाली बनाया जिसने पहले तो इन राजाओं को आम राजपूतों से काट दिया और फिर आगे जाकर कभी आर्य समाज तो कभी कांग्रेस तो कभी आरएसएस बनाकर जाति घृणा का षड्यंत्र रचा। आज भी राजस्थान के बड़े खानदान, जैसे सिंघवी, माथुर, बिरला, बजाज, एवम अन्य ब्राह्मण उच्च वर्ग उसी वर्ग का वंशज है , जो इन राजाओं के दरबारी एरिस्टोक्रेट्स थे।

यदि अब भी हम मिडल क्लास राजपुत भी इन राजाओं की तरह ब्राह्मण बनिया वर्ग से प्रभावित रहें तो गरीब राजपूतों का जीवन दुभर रहेगा।


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