क्षत्रिय समाज का भविष्य: नेतृत्व परिवर्तन की आवश्यकता


भारत में आज क्षत्रिय समाज तीन वर्गों में बँटा हुआ है —
भूतपूर्व सामंत, श्रमजीवी, और बुद्धिजीवी

भूतपूर्व सामंत वर्ग आज भी राजनीतिक और सामाजिक मंच पर वर्चस्व बनाए हुए है। श्रमजीवी वर्ग उनकी मानसिक गुलामी में जकड़ा हुआ है, और बुद्धिजीवी वर्ग — जो शिक्षित और प्रगतिशील है — वह हीनभावना से ग्रस्त होकर एक कोने में उपेक्षित खड़ा है।

दुखद तथ्य यह है कि भूतपूर्व सामंतों को न तो समाज के सामूहिक उत्थान से कोई लेना-देना है, न ही वे किसी सार्थक परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध हैं।
उनका लक्ष्य सिर्फ चुनाव जीतना, अपने निजी आर्थिक हितों की रक्षा करना और सामाजिक प्रभाव बनाए रखना है।

कई सामंत अब महज़ ज़मीनें बेचकर गुज़ारा कर रहे हैं, फिर भी समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी उन्हें ‘नेता’ मानता है — यह हमारी मानसिक दासता और हीन भावना का परिणाम है।

वास्तविकता यह है कि आज के दौर में समाज के भीतर कई काबिल प्रोफेशनल, प्रशासक, अधिवक्ता, शिक्षाविद, सैन्य अधिकारी, उद्योगपति, और जन प्रतिनिधि मौजूद हैं — लेकिन भूतपूर्व सामंतों के आगे उनकी कोई “औक़ात” नहीं मानी जाती।

समस्या स्पष्ट है, समाधान भी स्पष्ट होना चाहिए।

क्षत्रिय समाज का सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व जब तक बुद्धिजीवियों और शिक्षित मध्यवर्गीय युवाओं के हाथ में नहीं आएगा, तब तक समाज का विकास संभव नहीं।

इसके लिए आवश्यक है कि:

  1. क्षत्रिय बहुल संसदीय और विधानसभाई सीटों पर शिक्षित मध्यवर्ग नेतृत्व की दावेदारी करे।
  2. समाज सामंती और परंपरागत सोच से बाहर निकलकर प्रगतिशील नेतृत्व को समर्थन दे।
  3. उन तथाकथित सामाजिक संगठनों का बहिष्कार हो, जो समाज सेवा के नाम पर केवल दुकानदारी और चंदा वसूली में लगे हैं।
  4. स्त्री-विरोधी, पुरातनपंथी, और मोक्षमार्गी सोच का त्याग कर, सत्ता, शिक्षा और रोजगार में सशक्त भागीदारी को प्राथमिकता दी जाए।
  5. शिक्षित क्षत्रिय युवाओं को नेतृत्व की ज़िम्मेदारी दी जाए जो भविष्यद्रष्टा हों, अतीतजीवी नहीं।

अब समय है एक “क्षत्रिय पुनर्जागरण” का।

जहाँ जाति का नहीं, योग्यता और दृष्टि का नेतृत्व हो।
जहाँ चंदा नहीं, चेतना इकठ्ठा की जाए।
जहाँ प्रतीकों से नहीं, परिणामों से बदलाव हो।**

सामंती अवशेष आज भी समाज के राजनीतिक नेतृत्व पर क़ाबिज़ हैं,
बुद्धिजीवी हाशिये पर हैं, और श्रमजीवी वर्ग मानसिक ग़ुलामी में जकड़ा हुआ है।

क्या अब समय नहीं आ गया है कि पढ़े-लिखे, प्रगतिशील मध्यवर्गीय राजपूत आगे आएं और समाज का वास्तविक नेतृत्व संभालें?

हमें सत्ता, शिक्षा, और रोज़गार में सशक्त भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी — और उन मठाधीशों, सामंतों और चंदाखोर संगठनों को नकारना होगा जो समाज को पिछड़ेपन में बनाए रखना चाहते हैं।

समाज का उत्थान तब होगा जब नेतृत्व अतीतजीवी नहीं, भविष्यद्रष्टा होगा। जब तक नेतृत्व बुद्धिजीवियों के हाथ में नहीं आएगा, समाज नहीं बदलेगा!””नेतृत्व बदलेगा, तभी समाज बदलेगा!”

क्षत्रिय सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक चेतना मंच।

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