आत्मचिंतन : क्षत्रिय पहचान और इतिहास
यह पोस्ट किसी संगठन या व्यक्ति के विरोध में नहीं, बल्कि आत्मचिंतन के लिए है।
जिनकी इतिहास की समझ सतही होती है, वे मानसिक रूप से केवल कल्पना और मिथकीय चित्रण में जीते हैं। किंतु जो इतिहास के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को समझते हैं, वे वर्तमान और भविष्य पर केंद्रित रहते हैं। उन्हें सही और भ्रामक जानकारी का अंतर स्पष्ट होता है—जो मिथकीय इतिहास में खोए लोगों को कभी नहीं होगा।
इसीलिए, यदि कोई कहे कि “क्षत्रिय वही है जो ब्राह्मणों और गायों की रक्षा करे,” या “क्षत्रिय वही है जो ब्राह्मणों के लिए फिदायीन की तरह अपना सर्वस्व न्योछावर कर दे,” तो यह धारणा न केवल ग़लत है बल्कि इतिहासहीन भी है। ऐसे लोग अनजाने ही ब्राह्मणों द्वारा उपयोग किए जाते रहेंगे।
प्रश्न और तथ्य
भारत का सबसे पुराना धर्म जैन धर्म है, जिसके सभी 24 तीर्थंकर क्षत्रिय थे। क्या वे ब्राह्मणों की सेवा करते थे? क्या वे मनुस्मृति के अनुसार तलवार लेकर ब्राह्मणों की रक्षा में खड़े रहते थे? यदि नहीं, तो वे क्षत्रिय कैसे कहलाए?
इसी प्रकार, सम्राट अशोक-मौर्य और भगवान बुद्ध ने न तो ब्राह्मणों की सेवा की, न ही मनुस्मृति का पालन किया—तो क्या वे क्षत्रिय नहीं थे?
पीपाजी खींची, जाम्बोजी पंवार और रामदेवजी तंवर—क्या ये सब मनुस्मृति की परिभाषा के अनुसार क्षत्रिय नहीं हैं?
अब या तो मनुस्मृति गलत है या फिर हम इन महापुरुषों को क्षत्रिय मानने में गलत हैं। दोनों एक साथ सही नहीं हो सकते, विशेषकर तब जबकि इन सभी ने उसी ब्राह्मण वर्ग के विरुद्ध मोर्चा खोला था जिसे मनुस्मृति समाज में सबसे ऊँचा स्थान देती है।
क्षत्रिय : वंश आधारित पहचान
‘क्षत्रिय’ शब्द पाली भाषा के खत्तिय से निकला है। इसका वर्णव्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं है। यह वंश-आधारित सामुदायिक पहचान है।
इसलिए आप चाहे युद्ध करें या न करें, चाहे कर्मठ हों या अकर्मण्य—आप क्षत्रिय हैं। क्षत्रिय होना वैसा ही है जैसे कोई ब्राह्मण, खत्री, कायस्थ, जाट या गुज्जर हो। यह एक वंश/जातियों का समूह है, कोई पदवी या वर्ण-क्रम नहीं।
दो परम्पराएं : श्रमण और वैदिक
भारत में दो बड़ी परम्पराएं रहीं :
- श्रमण परम्परा – जिससे बौद्ध, जैन और नाथ परम्पराएं निकलीं।
- वैदिक परम्परा – जिससे शंकराचार्य, वल्लभ संप्रदाय, स्मार्त परम्परा, मीमांसा, आर्य समाज इत्यादि निकले।
अंतर यह है कि:
- वैदिक परम्परा क्षत्रिय को कर्मकांड और कार्य-आधारित बनाती है:
- जो युद्ध करे वही क्षत्रिय।
- जो गाय और ब्राह्मण की रक्षा करे वही क्षत्रिय।
- जो ब्राह्मण की सेवा करे वही क्षत्रिय।
- जो वैदिक धर्म (ब्राह्मण परम्परा) का प्रचार करे वही क्षत्रिय।
इसके दो उद्देश्य थे :
- क्षत्रियों को आजीवन ब्राह्मणों का चाकर और अंधानुयायी बनाए रखना।
- नई-नई लड़ाकू जातियों को ब्राह्मण-केंद्रित कथा से जोड़कर क्षत्रिय घोषित करना, ताकि उनकी ऊर्जा और पराक्रम ब्राह्मणों की शक्ति में जुड़ सके।
- श्रमण परम्परा जातिवाद को नहीं मानती। यह समन्वय, भाईचारे और समानता पर ज़ोर देती है।
- यहाँ क्षत्रियों (पाली में खत्तिय) का योगदान सबसे अहम रहा है।
- हर जगह खत्तिय को वंश आधारित पहचान माना गया है, और आज भी उनके वंशजों और वर्तमान राजपूत वंशों के बीच गहरा रिश्ता मिलता है।
- श्रमण परम्परा के ग्रंथों और परम्पराओं की नींव क्षत्रिय बुद्धिजीवियों ने ही रखी।
- माना जाता है कि बाबा गोरखनाथ भी बौद्ध परम्परा से प्रभावित थे, और नाथ संप्रदाय वस्तुतः वज्रयान बौद्ध से ही विकसित हुआ।
निष्कर्ष
हमें और हमारे बुज़ुर्गों को अपनी पहचान श्रमण परम्परा के तहत समझनी चाहिए—जहाँ क्षत्रिय होना वंश-आधारित है, न कि वैदिक परम्परा की तरह, जहाँ इसे किसी व्यवस्था का नौकर या कर्मचारी बना दिया गया।
क्षत्रिय होना हमारे वंश, हमारी परंपरा और हमारे इतिहास का हिस्सा है—ना कि किसी मनुस्मृति या वैदिक कर्मकांड की मोहर।